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________________ विषाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ६, नन्दिषेणवर्णनम् ४९३ " 'बहूओ' बहुचः 'अकुंडीओ' अयः कुण्डचः = लोहमयगम्भीरभाजनविशेषाः आसन्, तासु 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः = कतिपयाः 'तंबभरियाओ' ताम्रभृताः, -द्रवीभूतताम्रपूर्णाः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'तउयभरियाओ' त्रपु भृताः, 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'सीसगभरियाओ' सीसकभृताः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'कलकलभरियाओ' कलकलभृताः = कलकलशब्दयुक्त चूर्ण मिश्रतैलपूर्णाः अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'खारतेल्लभरियाओ' क्षारतैलभृताः 'अप्पेगइयाओ' अप्येककाः 'अगणीकायंसि अग्निकाये- अग्न्युपरि 'अद्दहियाओ' आदहिता:=आदहनम् आदह:(आपूर्वका 'दह' धातोर्घञ् ) स संजात एषां ते आदहिताः (आर्षत्वानो पधावृद्धि:) उत्कालिताः ( उत्कथिताः) 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति = आसन् । 'तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालगस्स' तस्य खलु दुर्योधनस्य चार पालकस्य 'बहवे ' बहच: ' उट्टियाओ' उष्ट्रिकाः मृण्मयबृहत्पात्रविशेषाः 'नाद' इति प्रसिद्धाः अनेक उसके पास लोहे की बडी २ गहरी कुंडियां थी । उनमें 'अप्पेगइयाओ' कितनीक तो 'तंबभरियाओ' पिघले हुए गर्म गर्म तांबे से भरी हुई रहती थीं 'अप्पेगइयाओ' कितनीक 'तउयभरियाओ' पिघले हुइ गर्म गर्म जसद से भरी हुई रहती थीं 'अप्पेगइयाओ सीसगभरियाओ' कितनीक पिघले हुए गर्म २ सीसे से भरी हुई रहती थीं । अप्पेगइयाओ कलकलभरियाओं" कितनीक कलकल शब्द करते हुए-उकलते हुए चुने से मिश्रित तेल से भरी हुई रहती थीं। 'अप्पेगइयाओ खारतेल्लभरियाओ' कितनीक खारे गरमागरम तेल से भरी हुई रहती थीं। और 'अप्पेगइयाओ अगणीकायंसि अदहियाओ चिति' कितनीक अग्नि के ऊपर गर्भपानी से उबलती रहती थीं । 'तस्स णं दुज्जोहणस्स चोरगपालगस्स बहवे उट्टियाओ आसमुत्तभरियाओ' उस दुर्योधन चारकपालक के यहां बहुत सी ऐसी भी अनेक गहरी डीयो। हती तेमां ' अप्पेगइयाओ ' डेंटली तो ' तंबभरियाओ भीगणावेस गरभ त्रांणाथी लरेसी हती. 'अप्पेगइयाओ' डेंटlls 'तउयभरियाओ' गरम यीगणावेव नसतना रसनी लरेसी हुती. 'अप्पेगइयाओ सीसगभरियाओ ' डेंटली गरम सीसानी लरेसी रहेती हती. 'अप्पेगइयाओ कलकलभारियाओ ' डेंटली! उस-उस शृण्छ कुरता उम्जेला युनाना पाणीथी लरेसी हती. 'अप्पेगइयाओ खारतेल्लभरियाओ' डेंटली आश गरम तेसनी लरेली हती, भने 'अप्पेगइयाओ earthrife अद्दहियाओ चिट्ठति ' डेटली अग्नि उपर गरम पाणीनी जती होय तेवी रहेती हती. 'तस्स णं दुज्जेोहणस्स चारगपालगस्स बहवे उट्टियाओ आसमुत्तभरियाओ ' ते हुर्योधन यार- पासउने त्यां भाटीनी भोटी मोटी अडीयो , શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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