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________________ ४८६ विपाकश्रुते 'सीहासणंसी' सिंहासने 'णिवेसावेंति' निवेशयन्ति-उपवेशयन्ति । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं' च खलु 'पुरिसाणं मज्ज्ञगयं तं पुरिसं' पुरुषाणां मध्यगतं तं पुरुषं 'बहुहि' बहुभिः अयकलसेहिं' अय:कलशैः लौहकलशैः 'तत्तेहिं तप्तः 'समजोइभूएहिं' समज्योतिर्भूतैः अग्निसदृशैः 'अप्पेगइया' अप्ये के 'तंबभरिएहिं' ताम्रभृतैः द्रवीभूतताम्रपूर्णैः 'अप्पेगइया' अप्येके 'तउयरिएहिं ' त्रपुभृतैः= द्रवीभूत-जसद इति-प्रसिद्धधातुविशेषपूर्णैः 'अप्पेगइया' अप्येके 'सोसगभरिएहिं' सीसकभृतः द्रवीभूतसीसकाख्यधातुविशेषपूर्णैः ‘कलकलभरिएहि' कलकलभृतैः अतितप्तत्वात्कलकलशब्दायमानजलभृतैः 'अप्पेगइया' अप्येके 'खारतेल्लभरिएहि' क्षारतैलभृतैः क्षारचूर्ण मिश्र तैलपरिपूर्णैः ‘महया महया' महता महता 'रायाभिसेसंतप्त 'सीहासणंसि' सिंहासन के ऊपर, जो 'समजोइयंसि' अग्नि के समान लाल चोळ हो रहा है, 'णिवेसावेंनि' बेठा दिया। और 'तयाणंतरं चणं' बैठा चुकने के पश्चात् 'पुरिसाणं मज्झगयं तं पुरिसं' पुरुषों के मध्यगत उस पुरुष का 'अप्पेगइया' कितनेक पुरुष 'ततेहिं संतप्त अतएव 'समजोइभूएहिं' अग्नि जैसे लाल 'बहुहिं अयकलसेहि' अनेक लोह निर्मित घडों से कि जिनमें 'तंब भरिएहिं पिघला हुआ तांबा भरा हुआ है, 'अप्पेगइया' कितनेक पुरुष ऐसे घडों से कि जिन म 'तउयभरिएहि' पिघला हुआ जसद भरा हुआ है, 'अप्पेगइया' कितनेक पुरुष ऐसे घडों से कि जिन में 'सीसगभरिएहिं' पिघला हुआ सीसा भरा हुआ है, 'अप्पेगइया' कितनेक पुरुष ऐसे घडों से कि जिन में 'कलकलभरिएहि' कलकल शब्द करता हुआ गर्म गर्म पानी भरा हुआ है, कितनेक पुरुष ऐसे घडों से कि जिन में 'खारतेल्लभरिएहि' क्षारतेल भरा हुआ है, सिंहासनना ५२ २ 'समजोइयंसि' भनिना समान सासया थJ २२स तु. ‘णिवेसावेंति' तना ५२ मेसा हीधे अने ' तयाणंतरं च णं । मेसाया पछी पुरिसाणं मज्झगयं तं पुरिसं' पुरुषांना मध्यात ते पुरुषना 6५२ ते सौ 'अप्पेगइया' ८८ पुरुष 'तत्तेहि तपासा अर्थात् 'समजोइभूएहि' अनि । ela 'बहुहिं अयकलसेहिं ' मने सानिमित siमाथी उभा 'तंब भरिएहि' पाणे तासयु छ, ' अप्पेगइया 'टा पुरुष मे। घtथी , रभा 'तउयभरिएहिं पाणावसत म छ, 'अप्पेगइया' मा पुरुष मेवा घडामो प 'सीसगभरिएहिं' सीसान। २स मसो छ, 'अप्पेगइया' टमा पुरुष वाघाची भा 'कलकलभरिएहिं' ४१-शाह ४२तो गरम पाए सरे छ, मा पुरुष मेवा पाथीभा 'खारतेल्लभरिएहि' क्षार तर नरेश શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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