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________________ वि. टीका, श्रु० १, अ० ५, बृहस्पतिदत्तवर्णनम् ४७१ 'तए णं से वहस्सइदत्ते दारए' ततः खलु स बृहस्पतिदत्तो दारकः 'उदयणस्स रणो' उदयनस्य राज्ञः 'पुरोहिए जाए' पुरोहितो जातः। 'से णं' स खलु बृहस्पतिदत्तः पुरोहितः 'उदयणस्स रणो' उदयनस्य राज्ञः 'पुरोहियकम्म करेमाणे ' पुरोहितकर्म कुर्वन् ‘सबढाणेसु' सर्वस्थानेषु-शयनभोजनादिसमस्तस्थानेषु 'सव्वभूमियासु'पासादगृहकोष्ठकोषागारादिषु 'अंतेउरे य' अन्तःपुरे च 'दिनवियारे जाए यावि होत्या' दत्तविचारः दत्तराजाभिमायः सर्वत्र संचरणार्थे प्राप्तराजाज्ञ इत्यर्थः, जातश्चाप्यभवत्-सर्वत्राऽप्रतिबन्धविहारोऽभूत् । 'तए णं' ततः खलु एवं प्राप्तराजाज्ञानन्तरं 'से बहस्सइदत्ते पुरोहिए उदयणस्स रणों' स बृहस्पतिदत्तः पुरोहितः उदयनस्य राज्ञः अंतेउरे' अन्तः पुरे 'वेलासु य' वेलासु च-उचितावसरेसु 'अवेलासु य' अवेलासु च-अनवसरेषु भोजनायनादिकालरूपेषु ‘कालेसु य' कालेसु च-प्रथमतृतीयप्रहरादिषु 'तए णं से बहस्सइदत्ते दारए उदयणस्स रणो पुरोहिए जाए' वह बृहस्पतिदत्त पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित हो गया । 'से णं उदयणस्य रण्णो पुरो हियकम्मं करेमाणे वह उदयन राजा का पुरोहितकर्म करता हुआ 'सव्वहाणेसु' राजा के शयन भोजन आदि सब स्थानों में 'सत्यभूमियासु' सब भूमिकाओं में अर्थात् सब राजमहलों आदि में 'अंतेउरे य' और राजा के अन्तःपुर में भी 'दिनवियारे जाए यावि होत्था' जाने के लिए राजा का अभिप्रायवाला अर्थात् राजा की आज्ञा प्राप्त किया हुआ बैरोक-टोक जाता आता था। 'तएणं से बहस्सइदत्ते' फिर तो वह बृहस्पतिदत्त 'उदयणस्स 'अंतेउरे वेलामु य अवेलासु य कालेमु य अकालेसु य राओ य वियाले य पविसमाणे' उदयन राजा के अंतःपुर में योग्य समय में, भोजन एवं शयन आदिरूप विकाल समय में, दिन के प्रथम, तृतीय आदि प्रहरों में, उदयणस्स रणो पुरोहिए जाए' ते मृत्पातहत पुरोहितना ५६ ७५२ स्थान पाभ्या 'से णं उदयणस्स रण्णो पुरोहियकम्मं करेमाणे ते यन ना युरोहित भ ४२तो थ। 'सव्वट्ठाणेसु' रानी शयन - माहि मधी यामे सव्व भूमियासु' राजतना पा रामसो महिमा 'अंतेउरे य' मने अन्त:पुरमा ५४] 'दिन्नवियारे' या भावना भाट राजतना भमिप्राय भेजवेटो अर्थात २०nनी माज्ञा प्राप्त ४२ १२ २४-टोsarत मावत तए णं से बहस्सइदत्ते ' ५ ताते मृहस्पतिहत्त 'उदयणस्स रण्णो अंतेरे वेलासु य अवेलासु य कालेसु य अकालेसु य राओ य वियाले य पविसमाणे ते ध्यन २ionना मतपुरमा योग्य सभये, જન અને શયન આદિ ખાનગી સમયે, દિવસના પ્રથમ, ત્રીજા આદિ પ્રહરોમાં, શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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