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________________ विपाकश्रुते भुञ्जानो 'विहरइ' विहरति । 'तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ' ततः खलु स शकटो दारकः सुदर्शनाया गृहात् 'णिच्छूढे समाणे' निक्षिप्तः= निःसृतः सन् 'अण्णत्थ कत्थवि' अन्यत्र कुत्रापि 'सुई वा रई वा घिई वा' स्मृतिं वा रतिं वा धृतिं वा, 'अलभमाणे' अलभमानः, 'जाव विहरई' यावद् विहरति, अत्र यावच्छब्दादेवं बोध्यम्-तच्चित्तः, तन्मनाः, तल्लेश्यः, तदध्यवसायः, तदर्थोपयुक्तः, तदर्पितकरणः, तद्भावनाभावितः, सुदर्शनाया गणिकाया बहूनि अन्तराणि च छिद्राणि च विवराणि च प्रतिजाग्रत् प्रतिजाग्रद् विहरति । एषां व्याख्याऽस्यैव द्वितीयाध्ययने १९ एकोनविंशतितमे सूत्रे निगदिता । 'तए णं से सगडे दारए अण्णया कयाई सुदरिसणाए अंतरं' ततः खलु स शकटो दारकः अन्यदा कदाचित् सुदर्शनाया अन्तरम् अवसरं गृहे प्रवेष्टुमिति भावः, 'लभेइ' लभते । 'लभित्ता' लब्ध्वा, 'रहस्सियं' राहसिक 'मुदरिसणाए गिहम्' माणुस्सगाई भोगभोगाई और उस सुदर्शना गणिका के साथ मनुष्यसंबंधी कामभोगो को 'भुंजमाणे विहरइ' भोगता हुवा रहने लगा । 'तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ णिच्छूढे समाणे' इस प्रकार वह शकट दारक उस सुदर्शना वेश्या के घर से निकाला हुआ 'अण्णत्थ कत्थवि सुई वा रई वा धिई वा अलभमाणे जाव विहरई' अन्यत्र किसी भी स्थान में उसे उसके सिवाय और किसी भी पदार्थ की न तो स्मृति आई, न इसके मन में किसी भी प्रकार से चैन पडी और न कहीं पर उसे आश्वासन ही मिला 'तए णं से सगडे दारए अण्णया कयाई सुदरिसणाए अंतरं लभेइ इस प्रकार अस्तव्यस्तपरिस्थितिसंपन्न हुए उस शकट दारक को किसी एक समय सुदर्शना के घर में प्रवेश करने के लिये अवसर हाथ आ गया । 'लभित्ता रहस्सियं सुदरिसणाए गिह संधी मलागाने 'मुंजमाणे विहरइ' लागवत थ। २२। साये. 'तए णं से सगडे दारए मुदरिसणाए गिहाओ णिच्छूढे समाणे' प्रमाणे ते ॥४८ २४ ते सुशन वेश्याना घेरथी नीxणे ' अण्णथ कत्थवि सुई वा रइं वा घिई वा अलभमाणे जाव विहरइ' भन्य-भी स्थणे गयो. त्यां तेने सुदर्शन वेश्या विना બીજે કઈ પદાર્થ સાંભર્યો નહિ, તેમજ તેના મનમાં કઈ પ્રકારે ચેન પડયું નહિ, તેમજ भीan sो स्थगे तने शति भणी नहि. 'तए णं से सगडे दारए अण्णया कयाई सुदरिसणाए अंतरं लभेइ' मा प्रमाणे मस्त-व्यस्तवाजी परिस्थिति पामेला त श४८ દારકને કોઈ એક સમયે સુદર્શના વેશ્યાના ઘરમાં પ્રવેશ કરવાનો અવસર મળી ગયે 'लमित्ता रहस्सियं सुदरिसणाए गिहं अणुप्पविसइ' २५१५२ भगतांथी साथ ते શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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