SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ विपाकश्रुते सार्थवाही सुभद्रं सार्थवाहमेवमवादीत्-एवं खलु' इत्यादि-एवं खलु देवाणुप्पिया!' एवं खलु हे देवानुप्रिय ! 'मम तिण्हं मासाणं जाव' मम त्रिषु मासेषु बहुमतिपूणेषु बहूनां गोरूपाणां पशूनां जलचरादिपक्षिणां च मांसैः सह मदिराणामुपभोगरूपो दोहदः प्रादुर्भूतस्तस्मिन्नपूरिते अपहतमनःसंकल्पा सती 'झियामि' ध्यायामि आर्तध्यानं करोमि । 'तए णं से सुभद्दे सत्थवाहे भदाए भारियाए एयमढे सोचा निसम्म' ततः खलु स सुभद्रः सार्थवाहः भद्राया भार्याया अन्तिके एतमथै श्रुत्वा निशम्य पर्यालोच्य · भदंभारियं एवं वयासी' भद्रां भार्यामेवमवादीत-"एवं खलु इत्यादि-'एवं खलु देवाणुप्पिया' एवं खलनिश्चयेन हे देवानुप्रिये ! 'तुह गभसि अम्हाणं पूवकयपावप्पभावेणं कोई अहम्मिए' तव गर्भे आवयोः पूर्वकृतपापप्रभावेणं कोऽपि-कश्चित् अधार्मिका धर्मशून्यः 'जाव पूछने पर वह भद्रा सार्थवाही कहने लगी- 'एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि' हे देवानुप्रिय । मेरे गर्भ के तीन माह पूरे होने पर इस प्रकार का दोहला उत्पन्न हुआ है कि-मैं नगर के बहुतसे गोरूप पशुओं के और जलचरादि पक्षियों के तले भूजे सोले किये हुए मांस के साथ मध्वादि पांच प्रकार की मदिरा का आस्वादन करूँ, बार बार स्वाद लूँ, उनका परिभोग करूँ और अन्यस्त्रीयों को भी द, इस प्रकार के दोहले के पूरे न होने से मैं 'झियामि' आतध्यान कर रही हूँ। 'तए णं से सुभद्दे सत्थवाहे फिर वह सुभद्र सार्थवाह 'भदाए भारियाए एयमढे सोचा निसम्म भई भारियं एवं वयासी' भद्रा भार्या के समीप इस बात को सुनकर और हृदय में धारणकर भद्रा भायां को इस प्रकार बोले 'एवं खलु देवाणुप्पिया' हे देवानुप्रिये ! 'तुह गम्भंसि' तेरे गर्भ में 'अम्हाणं पुवकयपावप्पहावेणं' पुछपाथी त मा सार्थवाही ४९१ साली-' एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि' देवानुप्रिय! भा२। न त भास पूरी भने આ પ્રમાણે દેહ–અનેરથી ઉત્પન્ન થયે છે કે-નગરનાં ઘણાં જ ગાય-રૂપ પશુઓના તથા જલચરાદિ પક્ષિઓનાં તળેલા ભુંજેલા અને શૂલપર રાખીને પકાવેલા માંસની સાથે મધુઆદિ પાંચ પ્રકારની મદિરાનું સેવન કરું, વારંવાર સ્વાદ લઉ તેને પરિભોગ કરું અને બીજી સ્ત્રીઓને પણ તે આપું, આ પ્રકારને દેહ પૂરે થયે नहि तथा 'झियामि' मात्तध्यान ४श ही छु. "तए णं से सुभद्दे सत्थवाहे' पछी त सुभद्र सार्थावाड 'भदाए भारियाए अंतिए एयमढे सोचा निसम्म भई भारियं एवं वयासी' म भार्यानी पासेथा त पात सीनयमा पा२६ ४ीन सा पत्नीने या प्रमाणे डा खायो-'एवं खलु देवाणुप्यिा ! देवानुप्रिये 'तुह गभसि' ता! गमभा 'अम्हाणं पुन्चकयपावप्यहावेण' ममा पूर्वसयित શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy