SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८ विपाकश्रुते व्यथ, इति विज्ञेयम् , 'उदाहो' उताहो अथवा, 'सयमेव' स्वयमेव 'गच्छेजा' गन्छेत आगमिष्यथेत्यर्थः । 'तए णं' ततः खलु ‘से अभग्गसेणे ते कोडुबियपुरिसे एवं व्यासी' सोऽभग्नसेनस्तान् कौटुम्बिक पुरुषान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-'अहण्णं देवाणुप्पिया !' अहं खलु हे देवानुप्रियाः ! 'पुरिमतालणयरे सयमेव गच्छामि' पुरिमतालनगरे स्वयमेव गच्छामि आगमिध्यामि 'तए णं' ततस्तदनन्तरं खलु 'कोडुंबियपुरिसे' कौटुम्बिकपुरुषान् 'सक्कारेइ सम्माणेइ' सत्कारयति, सम्मानयति, 'सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ' सत्कारयित्वा सम्मानयित्वा प्रतिविसर्जयति ।। मू० १९ ।।। स्वयं वहां पधारेंगे । 'तए णं से अभग्गसेणे ते कोटुंबियपुरिसे एवं वयासी इस प्रकार उन कौटुम्बिकपुरुषों की बात सुन कर वह अभग्नसेन उनसे इस प्रकार बौला 'अहणणं देवाणुप्पिया' हे देवानुप्रिय ! मैं 'पुरिमतालणयरे सयमेव गच्छामि' पुरिमताल नगर में स्वयं आऊँगा । 'तए से कोडंबियपुरिसे सक्कारेइ सम्माणेई' इस प्रकार अपना अभिप्राय कहकर उस अभग्नसेनने उन सब का अच्छी तरह से आदर सत्कार एवं सन्मान किया । 'सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ' सत्कार एवं संमान करके बाद में उसने उन आये हुए राजपुरुषों को विसर्जित किये। भावार्थ-महाबल राजा का आदेश प्रमाण कर वे समस्त कौटुम्बिक पुरुष पुरिमताल नगर से शीघ्र प्रस्थित होकर ऐसे मार्ग से उस शालाटवीस्थित चोरपल्ली की ओर रवाना हुए जो वहां से विशेष दूर नहीं पड़ता था। रास्ते में खाते पीते हुए वे लोग आपना पासे यही मावशी मा५ पोते त्या पधार? 'तए णं अभग्गसेणे ते कोडंबियपुरिसे एवं वयासी' २॥ प्रभारी डीभिम पुरुषोनी बात सामान ते ममग्नसेन तेमाने मा प्रमाणे वा साये-'अहणं देवाणुप्पिया' है देवानुप्रिय! हुँ 'पुरिमतालणयरे सयमेव गच्छामि' पोते रिमतात नगरमा सावीश 'तए णं कोडुंबियपुरिसे सक्कारेइ सम्माणेइ' मा प्रमाणे पातान। અભિપ્રાય કહીને તે અલગ્નસેને તે આવેલા સૌને સારી રીતે આદર સત્કાર અને सन्मान यु. 'सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ' सन्मान भने सत्४२ ४ा પછી. તેણે આવેલા સૌ રાજપુરુષને વિદાય-રવાના કર્યા. ભાવાર્થ-મહાબલ રાજાની આજ્ઞાનું પ્રમાણ કરીને તે તમામ કૌટુમ્બિક પુરુષે પુમિતાલ નગરથી તુરત જ તૈયાર થઈને બહુ દૂર ન થાય તેવા માર્ગથી શાલાટવીમાં રહેલી ચેરપલી તરફ રવાના થયા, રસ્તામાં ખાતા-પીતા આનંદ કરતા શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy