SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ३, अभमसेनवर्णनम् टीका 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं ते जाणवया पुरिसा' ततः खलु ते जानपदाः पुरुषाः देशनिवासिनः पुरुषा 'अभग्गसेणचोरसेणावइणा' अभग्नसेनचोरसेनापतिना 'बहुग्गामघायावणाहि' बहुग्रामघातनाभिश्वबहूनां ग्रामाणां लुण्टनैः 'ताविया समाणा' तापिताः सन्तापिताः सन्तः 'अण्णमण्णं' अन्योन्यं = परस्परम् 'सदाति' शब्दयन्ति आह्वयन्ति, 'सदावित्ता एवं वयासी शब्दयित्वा एवमवादिषुः-‘एवं खलु देवाणुप्पिया!' एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! 'अभग्गसेणचोरसेणावई' अभग्नसेनचौरसेनापतिः 'पुरिमताले णयरे' पुरिमताले नगरे 'पुरिमतालणयरस्स' पुरिमतालनगरस्य 'उत्तरिलं' उत्तरीयम्-उत्तरदिगवस्थितम् 'जणवयं' जनपदंदेश 'बहुहि' बहुभिः 'गामघाएहिं' ग्रामघातैः ग्रामलुण्टनैः 'तए ण ते जाणवया' इत्यादि । 'तए णं' इसके बाद 'ते जाणवया पुरिसा' उन देशनिवासी पुरुषों ने 'अभग्गसेणचोरसेणावइणा' अभग्नसेन चोरसेनापतिद्वारा 'बहुग्गामघायावणाहि ताविया समाणा' अनेक ग्रामोंकी घातना आदि से संतापित होकर 'अण्णमण्णं सद्दावेइ' परस्पर मिलकर विचार करने का इरादा किया, इसके लिये उन्हों ने सबके पास सूचना पहुँचादी 'सदावित्ता एवं वयासी' सूचना मिलतेही जब सब एकत्रित हो चुके तब उन्होंने इस प्रकार कहना आरंभ किया- ‘एवं खलु देवाणुप्पिया' भाईयों! सुनो- हम सब लोग यहां पर इसलिये एकत्रित हुए हैं कि 'अभग्गसेण चोरसेणावई' चोरों का सरदार यह अभग्नसेन 'पुरिमताले नयरे' पुरिमताल नगर में 'पुरिमतालणयरस्स उत्तरिलं जणवयं पुरिमताल नगर के उत्तर दिशा में रहे हुए उनपद को 'बहुहिं गामघाएहिं जाव णिद्धणं 'तए णं ते जाणवया' त्याहि. 'तए णं' ते पछी 'ते जाणवया पुरिसा' ते देशना निवासी पुरुषा 'अभग्ग सेणचारसेणावइणा ' मनसेन यारसेनापतिद्वारा 'बहुग्गामघायावणाहिं ताविया समाणा, मने मानी धातना माहिथी सतापित थाने 'अणामण्णं सहावेड' ५२२५२ भसीने विचार ४२वानी राहो ध्ये. मने ते भाटे सोने तमाम समयस२ सूचना पांयाडी मापी 'सदावित्ता एवं वयासो' सूयना भातia तमाम માણસો એકઠા થઈ ગયાં ત્યારે તેઓની પાસે આ પ્રમાણે કહેવાને પ્રારંભ કર્યો 'एवं खलु देवाणुप्पिया!" माय! सांभ! मागे तमाम भाणसी महीमा मेटा भाटे मे या छीमे 'अभग्गसेणचारसेणावई' यारानस२६।२ मे समनसेन पुरिमतालणयरे' पुरिमतारा नगरमा पुरिमतालणयरस्स उत्तरिलं जणवयं' पुस्मिता नानी उत्तर दिशामा २९८i पहोने 'बहुहिं गामघाएहिं શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy