SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि. टीका, श्रु० १, अ० ३, अभग्नसेनवर्णनम् 'अण्णेसि च बहूणं' अन्येषां च बहूनां 'छिण्णभिण्णवाहिराहियाण' छिन्नभिन्नबहिराहितानां-छिन्ना नासिकादिषु, भिन्ना हस्तादिषु, बहिराहिताः नगराद् बहिष्कृताः, एतेषां द्वन्द्वः-छिन्नभिन्नवहिराहितास्तेषां, 'कुडंगे' कुटङ्कः-कुटङ्क इव कुटङ्क: वंशगहनमिव तेषामावरकः-गोपक इत्यर्थः ' यानि होत्था' चाप्यभवत् । "तए णं से विजए चोरसेगावई' ततः खलु स विजयश्चोरसेनापतिः, 'पुरिमतालस्स णयरस्स' पुरिमतालस्य नगरस्य 'उत्तरपुरथिमिल्लं' उत्तरपौरस्त्यम्-उत्तरपूर्वान्तरालस्थं 'जणवय' जनपदं वहूहि' बहुभिः ‘गामघायएहि य' ग्रामघातकैश्च ‘णयरघायएहि य' नगरघातकैश्च ‘गोग्गहणेहि य' गोग्रहहोते हैं उनका, अथवा अपने चरित्र को छुपाते हुए जो कन्था को धारण करने वाले होते हैं उनका, एवं 'अण्णेसिं च बहूणं छिण्णभिण्ण वाहराहियाणं' और भी बहुत से नासिका आदि अङ्ग-छिन्न-जिनका हाथ वगैरह कटा रहता था, भिन्न जिनकी नाक आदि कटी रहती थी, एवं जो बहिराहित-नगर से बहिष्कृत किये हुए होते थे, उन सबका भी यह 'कुडंगे याचि होत्था' कुटंक-बांस की झाडी के समान गोपक था, अर्थात्-जिस प्रकार बांस की झाडी अपने अंदर छिपी हुइ वस्तु की रक्षा करती है-उसे प्रकट नहीं होने देती है-उसी प्रकार से यह भी इन सब की रक्षा करता था, इसके सहारा पाने पर किसी का भी कोई बाल बांका नहीं कर सकता था । 'तए णं से विजयचोरसेणावई पुरिमतालस्स णयरस्स उत्तरपुरिथिमिल्लं जणवयं' यह विजय चोरसेनापति पुरिमताल नगर के उत्तर और पूर्वदिशा के अन्तराल में रहे हुए जनपदों को 'बहूहि' बहुत से 'गामघायएहि य' ग्रामों के घातनेरूप, ‘णयरघायएहि य' नगरों के घातनेरूप, ‘गोग्गपोताना यरित्रने छुपावीने जी धारण ४२ना। जय छ तेना तथा 'अण्णेसिं च वहणं छिण्णभिण्ण बाहिराहियाणं' olon ४, ना ना४ वगेरे मन કપાઈ ગયેલા રહેતા હતા, જેના હાથ વગેરે અંગ કપાયેલા હતા તે. તેમજ જે ॥ममाथी ६२ टी भूमाता तेतथा ५२ यासा सो भाटे ते कुडंगे यावि होत्था' वासनी साडी प्रमाणे तेन। २१४ इतो, मेटले २ प्रमाणे पiसनी ઝાડી પિતાની અંદરની વસ્તુનું રક્ષણ કરે છે–તેને પ્રગટ થવા દેતી નથી–તે પ્રમાણે આ ચાર પણ સોની રક્ષા કરતું હતું. તેને સહકાર મળતાં તેના આશ્રયે રહેનારને ३ ५९पाण पछि ४२१ शता न. 'तए णं विजयचोरसेगावई पुरिमतालस्स णयरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहहिं गामधायएहि य णयरघायएहि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंथको हि य खत्तखणणेहि य उव्वीलेमाणे२ શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy