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________________ विषाकश्रुते छिन्नशैलविषमप्रपात परिखोपगूढा छिन्नः = विदीर्णः शैलस्तस्य ये विषममपाताः= गर्ताः त एवं परिखाः, ताभिरुपगूढा = वेष्टिता, 'अभितर पाणिया' अभ्यन्तरपानीया=अभ्यन्तरजलयुक्ता 'सुदुलभजल पेरंता' सुदुर्लभजलपर्यन्ता सुदुर्लभम् = अतिदुर्लभं जलं पर्यन्ते यस्या: 'सा तथा, 'अणेगखंडी' अनेकखंडी = अनेकाः खण्ड्यः=अपद्वाराणि-गुप्तद्वाराणि यस्याः सा तथा, 'विइयजणदिण्णणिग्गमप्पवेसा' विदितजनदत्तनिर्गमप्रवेशा = विदितानां परिचितानामेव जनानां दत्तः निर्गमः प्रवेशश्च यस्यां सा तथा पुनः 'सुबहुयस्सवि कुवियस्स जणस्स दुप्पवेसा' बहुकस्यापि कुपितस्य = कोपाविष्टस्य वैरिण इत्यर्थः, जनस्य दुष्प्रवेशा= दुष्करः प्रवेशो यस्यां सा तथा, 'यावि' चापि 'होत्था' आसीत् || सू० २ ॥ विसमप्पवायफलिहोचगूढा' इसके आस-पास की छोटी२ टेकरियां खोद डाली गई थीं, इससे भूमि में जगह२ खड्डे हो गये थे, इससे देखने वालों को ऐसा ज्ञात होता था कि मानो यह खाई से घिरी हुई हो । अभितर पाणिया ' चोरपल्ली के भीतर ही पानी का प्रबंध था । पानी लाने के लिये वहां से लोगों को बाहर नहीं जाना पडता था । 'सुदुलभजलपेरंता' क्यों कि इसके बाहर बहुत दूर तक पानी का कोई साधन नहीं था । ' अणेगखंडी' इसमें अनेक गुप्तद्वार भी थे । ' विश्यजणदिण्णणिग्गमप्पवेसा' जान पहिचान वाले जन ही इसमें आ-जा सकते थे, अपरिचित नहीं । ' सुवहुस्सवि कुवियस्स जणस्स दुप्पवेसा यावि होत्था ' बहुसंख्यक कुपित शत्रुओं को भी इसमें प्रवेश करना मुश्किल था । उनके लिये तो यह सर्वथा दुष्प्रवेश थी । 4 २९६ 'छिन्न सेल विसमप्पवायफलिहोवगूढा' तेनी व्यासपासनी नानी टेहरीमा गोही नांभेली હતી, તે કારણથી જમીનપર ઠેકાણે ઠેકાણે ખાડા થઇ ગયા હતા તેથી જોનાર માણસને मेवुं सागतु ं स्तु } लगे ते माध्योथी घेरायसी होय. 'अभितर पाणिया' या रपसीनी અંદરજ (ચારોનું ગામ) પાણીના પ્રખ'ધ હતેા, તેથી, પાણી લાવવા માટે ત્યાંના લોકોને महार वुं पडतु ं नहि. ' सुदुल्लभनलपेरंता ' अरण के तेनाथी महार हुन दूर सुधी पाणी भाटे अध साधन हेतु नहि. ' अणेगखंडी , તેમાં અનેક ગુપ્તદ્વાર डा. " वइयजणदिण्णणिग्गमप्पवेसा' ने लावा - पीछावा वाणी भाशुस હાય તેજ તેમાં આવી જઈ શકતા હતા, અજાણ્યા માણુસ આવી શકતે નહિ. 'सुबहु सवि कुवियस्स जणस्स दुप्पवेसा यावि होत्था ' गहु मोटी संख्याવાળા કુપિતશત્રુઓને પણ તેમાં પ્રવેશ કરવા કઠણ હતેા. શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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