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________________ विपाकश्रुते वशेषः, त्रिभागेभ्योऽवशेषः-त्रिभागावशेषस्तस्मिन् दिवसे-दिवसस्य चतुर्थप्रहरे इत्यर्थः, 'सूलभिण्णे कए समाणे' शूलभिन्नः कृतः सन् , 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां 'णेरइयत्ताए' नैरयिकतया 'उववजिहिइ' उत्पत्स्यते । 'से णं तओ अणंतर' स खलु ततोऽनन्तरम् 'उव्यट्टित्ता' उद्वर्त्य=निःसृत्य, 'इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे' इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे 'वेयड्ढगिरिपायमले' चैताढयगिरिपादमूले-वैतादयनामकपर्वताधोभागे 'वाणरकुलंसि' वानरकुले 'वाणरत्ताए' वानरतया 'उववन्जिहिड' उत्पत्स्यते । “से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे' स खलु तत्रोन्मुक्तबालभावः बाल्यावस्थामतिक्रान्तः, 'तिरियभीएसु' तिर्यग्भोगेषु 'मुच्छिए' मूच्छिनः आसक्तः 'गिद्धे' वृद्ध आकाङ्क्षावान् ‘गढिए' ग्रथितः तत्सेमजालबद्धः, 'अज्झोववण्णे' अध्युपपन्नः-अधि-आधिक्येन उपपन्नः संलग्नमनाः सन् ही त्रिभाग से अवशिष्ट दिवस में-दिवस के चतुर्थ प्रहर में 'मूलभिण्णे कए' शूल से विदीर्ण हो, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' इस रत्नप्रभा पृथिवी में 'रइयत्ताए उववजिहिइनारकी की पर्याय से उत्पन्न होगा। 'से णं तओ अणतरं उव्वट्टित्ता' वहां से बाद में निकल कर 'इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उवबजि हिइ' यह इसी जंवूद्धीप के भरतक्षेत्र में जो वेताढय पर्वत है, उमको तलहटी में वानरकुल में वानर की पर्याय से उत्पन्न होगा। से णं तत्थ उम्तकचालभावे तिरियभोएस मुच्छिए गिद्धे गदिए अज्झोववण्णे जाए जाए बाणरपोए बहेहिइ' वहां पर जब यह पाल्य अवस्था को अतिकान्त होकर यौवन अवस्थावाला होगा, तब तिर्यंचसंबंधी भोगों में मूच्छित,गृद्ध,एवं तत्संबंधी अधिक आसक्ति में रात-दिन जकडा रहकर, तथा 'अज्झोववणे' अध्युपपन्न-उन्हीं के सेवन में क्षण२ या प्र६२मा 'मूलभिण्णे कए' शूली (qzleg 45, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' मा प्रमाथिवीमा ‘णेरइयत्ताए उवबजिडिड' नाहीना पायथी Bur थशे से णं तओ अणंतरं उबट्टित्ता' पछी त्याथी नीजाने 'इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उववन्जिहिइ' ते ॥ दीपना लरतक्षेत्रमा नाय પર્વત છે, તેની તળેટીમાં વાનકુલમાં વાનરની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થશે. ‘से णं तत्य उम्मुक्कबालभावे तिरियभोएसु मुच्छिए गिद्धे गदिए अझोववण्ण, जाए जाए वाणरपोए बहेहिइ' या ते -मस्याने पूरी ने न्यारे યૌવન અવસ્થામાં આવશે ત્યારે તિર્યચસમ્બન્ધી ભેગમાં મૂરિષ્ઠત, ગૃદ્ધ અને તે શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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