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________________ १९८ विपाकश्रुते 'तत्थ णं वाणियग्गामे णयरे' तत्र खलु वाणिजग्रामे नगरे 'विजयमित्ते णाम सत्थवाहे परिवसई' विजयमित्रो नाम सार्थवाहः परिवसति । स कीदृशः ? इत्याह-'अड़े आढया समृद्धिसम्पन्नः । 'तस्स णं विजयमित्तस्स' तस्य खलु विजयमित्रस्य 'सुभदा णामं भारिया' सुभद्रा नाम भार्या होत्था' आसीत्, सा कीदृशी ?-त्याह-'अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा' अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरा । 'तस्स णं विजयमित्रस्स पुत्ते' तस्य खलु विजयमित्रस्य पुत्रः, 'सुभाए भारियाए' सुभद्राया भार्याया 'अत्तए' आत्मजः अङ्गजः, 'उज्झियए णामं दारए' उज्झितको नुसार उसका संचालन करता है, ठीक यह भी समस्त वेश्याजनरूप अपनी सेना का संचालन करती और उसमें अपनी आज्ञा का एकच्छन्त्र राज्य स्थापित करती थी। इसकी इच्छा के विरुद्ध वहां एक भी वेश्या प्रवृत्ति नहीं करती। जो भी कोई नियम यह बनाती उसका यह स्वयं पालन करती हुई दूसरी वेश्या से भी पालन कराती थी। 'तत्थ णं वाणियग्गामे' उस वाणिजग्राम नगर में 'विजयमिते णामं सत्थवाहे परिवसई' विजयमित्र नामका एक सार्थवाह रहता था । 'अड्ढे' वह बहुत अधिक धनी था। 'तस्स णं विजयमित्तस्स सुभदा णाम भारिया होत्था' उस विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की पत्नी थी। 'अहीण.' वह अहीन और परिपूर्ण पंचेन्द्रियों से विशिष्ट शरीरवाली थी। 'तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभदाए भारियाए अत्तए उज्झियए णामं दारए होत्था' उस विजयमित्र सार्थवाह का एक पुत्र था, जो सुभद्राभार्या का अंगजात था, एवं जिसका नाम उज्झित था। તે સેનાનું સંચાલન કરે છે, બરાબર તેવી જ રીતે કામેશ્વજા વેશ્યા પણ તમામ વેશ્યાજનરૂપ પિતાની સેનાનું, સંચાલન કરતી અને તેના પર પિતાની આજ્ઞાનું એકછત્ર રાજ્ય સ્થાપિત કરતી હતી, તેની ઈચ્છાવિરુદ્ધ ત્યાંની એક પણ વેશ્યા કેઈ પણ કામ કરતી નહિ. પોતે જે કાંઈ નિયમ કરે તેનું પતે પાલન કરતી, અને બીજી વેશ્યાઓ પાસે પાલન કરાવતી હતી. 'तत्थणं वाणियग्गामे ते पायाम न॥२मा 'विजयमित्ते णामं सत्थवाहे परिवसइ' वियभित्र नभने। मे४ साथ वाड (03) २हेतो तो. 'अड्ढे ' ते पनवान डतो. तस्स णं विजयमित्तस्स सुभदा णामं भारिया होत्था' त वियभित्र साथ पानी सुभद्रा नामनी पत्नी ती. 'अहीण. ' ते पा3- विनानी (સપૂર્ણ અંગવાળી) અને તમામ પાંચ ઈન્દ્રિયેથી વિશિષ્ટ શરીરવાળી હતી 'तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभदाए भारियाए अत्तए उज्झियए णामं दारए होत्था' ते वियभित्र सार्थवाहने मे पुत्र हतो, नुं नाम Glorst तु, શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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