SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, मृगापुत्रस्यानागतभववर्णनम् १८३ प्रतिज्ञस्य वक्तव्यता वर्णनं, सैवास्यापि वक्तव्यतेत्यर्थः । तामेव स्मारयन्नाह'कलाओ' इति । 'कलाओ' कलाः, काः ? द्वासप्ततिसंख्यकाः कला स्तेन ग्रहीष्यन्ते, यथा दृढमतिज्ञेन गृहीता इति भावः। 'जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सइ' यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति, इति भावः, अत्र यावच्छब्देन सर्व चरित्रं वाच्यम् । सेत्स्यति, भोत्स्यते, मोक्ष्यते, परिनिर्वास्यति-इत्येषां संग्रहः। तत्र सेत्स्यति-सिद्धो भविष्यति-कृतकृत्यो भविष्यति, भोत्स्यते-केवलज्ञानेन सर्व ज्ञेयं ज्ञास्यति, मोक्ष्यते-सकलकर्मबन्धाद् विमुक्तो भविष्यति, परिनिर्वास्यति-पारमार्थिकसुखं प्राप्स्यति । सर्वदुःखानाम् अन्तं-नाशं करिष्यति । विदेह क्षेत्र में जो भी समृद्धिशाली कुल हैं उनमें से किसी एक कुल में पुत्रपने उत्पन्न होगा। औपपातिक सूत्र में जिस प्रकार से दृढप्रतिज्ञ का वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार से इसे भी समझना चाहिये । 'कलाओ जाव सम्बदुक्खाणमंतं करिस्सई' यही बात इन पदों से सूत्रकारने स्पष्ट की है कि जिस प्रकार दृढप्रतिज्ञ ७२ कलाओं में प्रवीण था उसी प्रकार से यह भी उनमें निपुणमति होगा, वह जिस प्रकार समस्त कमों का अन्त करने वाला हुआ, यह भी उसी प्रकार होगा। यावत् शब्द से 'सेत्स्यति भोत्स्यते, मोक्ष्यते, परिनिर्वास्यति' इन पदों का ग्रहण है, इनका अर्थ इस प्रकार है-'सेत्स्यति' वह सिद्ध-कृतकृत्य होगा, 'भोत्स्यते' केवल ज्ञान से समस्त ज्ञेयों का ज्ञाता होगा, 'मोक्ष्यते' समस्त कर्मों के बन्धन से सर्वथा मुक्त होगा, 'परिनिर्वास्यति' पारमार्थिक आत्मिक अनन्त अव्यानाध सुखों को प्राप्त करेगा, 'सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति' इस જે સમૃદ્ધિશાલી કુળ છે તેમાંના કેઈ પણ એક કુળમાં પુત્રરૂપે ઉત્પન્ન થશે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં જે પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, બરાબર તેજ प्रमाणे सह ५५५ समrji. 'कलाओ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सई' એજ વાત, આ પદેથી સૂત્રકારે સ્પષ્ટ કરી છે કે-જે પ્રમાણે દૃઢપ્રતિ બહોતેર (૭૨) કલાઓમાં પ્રવીણ હતા. તે પ્રમાણે આ પણ તેમાં નિપુણબુદ્ધિવાળે થશે, તે જે પ્રમાણે समस्त भनी अ.1 १२ना२ थयो ते प्रमाण मा ५५ यथे. यावत् २०४थी 'सेत्स्यति, भोत्स्यते, मोक्ष्यते, परिनिर्वास्यति' ने पहोर्नु : ४२वानुं छे. તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે- તે સિદ્ધ–કૃતકૃત્ય થશે, કેવળજ્ઞાનથી જાણવા યોગ્ય સમસ્ત પદાર્થોને જાણકાર થશે, સમસ્ત કર્મોના બંધનથી સર્વથા મુક્ત થશે, पारमार्थि४ मात्मि२५०यामा सुभान प्राप्त ४२शे, 'सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति' શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy