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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, मृगापुत्रम्यानागतभववर्णनम् १७३ च्छब्देन-'मूरे दढप्पहारी' इत्यादि बोध्यम् । एवंविधः स 'बहुं पाव जाव' बहु पापं यावत् , तत्र-बहु-बहुविधं पापं प्राणातिपातादिलक्षणं, यावत्पदेनकलिकलुषम्- इत्यस्य संग्रहः, 'समजिणइ' समर्जयति, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याँ 'समजिणित्ता' संमज्य=पापकर्मोपार्जनं कृत्वा, ‘काल मासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'उकोसं' उत्कर्ष यथा स्यात्तथा 'सागरोवमटिइएसु जाव' सागरोपमस्थितिकेषु यावत्-'नरयिकेषु नैरयिकतया' इति संग्रहः, 'उववजिहिइ' उपपत्स्यते । ‘से णं' स खलु 'तओ अगंतरं' ततोऽनन्तरम् तत्पश्चात् 'उबट्टित्ता' उद्धृत्य-रत्नप्रभापृथिव्या निर्गत्य 'सरीसिवेसु' सरीसृपेषु-नकुलावह वहां अधर्मी, शूर, दृढप्रहारी एवं साहसिक सिंह होगा। 'जाव' शब्द से यहां 'सरे दढप्पहारी' इन पदों का संग्रह किया गया है। 'वहुं पावं जाव समज्जिण' यावत् शब्द से यहां पर भी 'कलिकलुसं' इस पद का ग्रहण हआ है। वह सिंह अपनी पर्याय से अनेक प्रकार के कलिकलुष प्राणातिपातादिरूप पापकर्मों का संचय करेगा। 'समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा' उनका संचय कर के कालमास-मृत्यु अवसर में मरकर वह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उकोसं सागरोवमटिइएसु जाव उववजिहिइ' इसी रत्नप्रभा-पृथिवी के एक सागर की उत्कृष्ट स्थितिवाले प्रथम नरकमें नारकीरूपसे उत्पन्न होगा। ‘से णं तओ अणंतरं उपट्टित्ता सरीसिवेसु उववन्जिहिइ, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसेण तिनि सागरोवमाई पश्चात् वह वहां से निकल कर सरीसृप-नकुल आदि योनियों में उत्पन्न ते त्या मधी', शूरवी२, ४८प्रारी अने सासि सिंड थशे. 'जाव' २०४थी 28, 'मूरे दढप्पहारी' माहिपहानी संग्रह ये छ. "बहुं पावं जाव समजिणइ' यावत थी मी ! 'कलिकलुसं' को पहनु अडाण थयु छ, ते सिंह पोताना પર્યાયથી અનેક પ્રકારના કલિકલુષ પ્રણાતિપાતાદિરૂપ પાપ કર્મોને સંચય કરશે. 'समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा तेने। सयय ४ीने मृत्युना मस२ भ२६ भाभीने 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमठिइएसु जाव उववजिहिइ' पछी ते १ मा रत्नप्रभा पृथ्वीना ट से सागरनी स्थिति पडता न२४मा ना२३पे उत्पन्न थशे. ' से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसिवेसु उववजिहिइ, तत्थ गं कालं किच्चा दोचाए पुढवीए उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाई' पछी ते त्यांची नाणी सरीसृ५-नस (नाणीया) माहिनी શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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