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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्र० १, अ० १, मृगापुत्रवर्णनम् । १६७ 'उज्झासि' उज्झसि = क्षिपसि, 'तओ णं' ततः खलु 'तुम्हें' तत्र 'पया' प्रजा= संततिः, 'नो थिरा' नो स्थिरा 'भविस्सर' भविष्यति । 'तो णं' तस्मात् खट्ट 'तुमं एयं दारगं' त्वमेतं दारकं 'रहस्सियगंसि भूमिघरंसि' राहसिके भूमिगृहे = भूम्यधोवर्तिगृहे 'रहस्सिएणं भत्तपाणेणं' राहसिकेन भक्तपानेन 'पडिजागरमाणी २' प्रतिजाग्रती २ = पालयन्ती २ 'विहराहि' विहर, 'तो णं' तस्मात् खलु 'तुम्हं पया थिरा भविस्स' तत्र प्रजा स्थिरा भविष्यति । 'तए णं सा मियादेवी' ततः खलु सा मृगादेवी 'विजयस्स खत्तियस्स' विजयस्य क्षत्रियस्य स्वपतेः 'तहत्ति' तथाऽस्तु - इत्युक्त्वा 'एयमहं fareणं' एतमर्थ विनयेन 'पडिसुणे' प्रतिशृणोति = स्वीकरोति, 'पडिसृणित्ता' ही पहिला गर्भ है, 'तं जड़ णं तुम एवं एगंते उकुरुडियाए उज्झासि ' तो यदि तुम इसे एकान्त स्थानमें डलवाती हो, 'तओ गं तुम्हं पया नो थिरा भविस्स' तो फिर तुम्हारी संतान स्थिर नहीं होगी, 'तो' इसलिये निश्चित 'तुमं एयं दारगं रहस्सियसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी२ विहराहि ' तुम इस बालक को मनुष्यों से अविदित भोयरे में प्रच्छन्नरूप से रख कर और वहीं पर गुप्तरूप से आहार- पानी खिला-पिला कर इसका पालन-पोषण करो । ' तो णं' ऐसा करने से ही 'तुम्हं पया थिरा भविस्सर' आगामी काल में होनेवाली तुम्हारी संतान स्थिर होगी । ' तए णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमहं विणणं पडिसुणे ' इस प्रकार वह मृगादेवी अपने पति विजय राजा के कथन को 'तथास्तु' कर बडे ही विनय से स्वीकार किया, और 'पडिणित्ता तं दारगं कह 4 ओ गं तुम्हं पया नो थिरा भविस्सइ ' तो यछी तमाशं भविष्यमा थनाशं संतान स्थिर थशे नहि, अर्थात् जीन संतान वशे नहि. 'तो णं' भेटला भाटे निश्चित 'तुमं एयं दारगं रहस्सियगंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहराहि ' तभे या माजउने मनुष्यो न लागे तेवी रीते लोयराभां ગુપ્તરૂપથી રાખે અને ત્યાં ગુપ્તપણે ખાન-પાન આપીને તેનું પાલન-પોષણ કરો. , तो णं ' मेव ते वाथी ०४ 'तुम्हं पया थिरा भविस्सइ 'वे पछी थनारी तभारी अन्न-संतान स्थिर थशे (लवता रहेथे ). 'तर णं सा मियादेवी विजयस्स स्वस्यिरस तहत एयम विणणं पडिसुणेइ' मा प्रभाते भृगादेवी पोताना પતિ વિજય રાજાના વચનને “તથાસ્તુ” કહીને બહુજ વિનયથી તેના સ્વીકાર કર્યાં, અને ' पडिणित्ता तं दारणं रहस्सियसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजाग 4 શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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