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________________ (૪૮ विपाक ते 4 अभिलषन्, 'अदुहहबसट्टे' आर्तदुःखार्तवशार्तः - आर्तः =मनसा दुःखितः, दुःखार्त:- देहेन, बशार्तः = राज्यसमासकेन्द्रियवशेन तत्सुखवियोगसम्भावनया पीडितः, एषां कर्मधारये आर्तदुःखार्तवशार्तः - आर्तध्यानोपगत इत्यर्थः, 'अइढाइज्जाई वाससयाई' अर्धतृतीयानि वर्षशतानि = सार्धद्वयवर्षशतानि, 'परमाउयं' परमायुष्कम् = उत्कृष्टायुष्कं 'पालिता' पालयित्वा 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'इमीसे रयणप्पभार पुढवीए ' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'सागरोवमहिइएस' सागरोपमस्थितिकेषु 'नेरsee deseere वन्ने' 'नैरयिकेषु नैरयिकतया उत्पन्नः । ' से णं' स खलु तओ अनंतरं ततोऽनन्तरं = ततः पश्चात्, ' उव्वट्टित्ता' उद्वर्त्य = निःसृत्य का, स्पृहा - चाहना का और अभिलाषा - वाञ्छा का यदि कोई विषय था तो वह एक राज्य ही था, उसी में यह स्पृहाशील और अभिलाषासंपन्न बना हुआ था । 'अट्टदुहट्टवसट्टे' मानसिक दुःखों और शारीरिक कष्टों की परंपरा से एवं इन्द्रियसंबंधी वैषयिक सुखों की अभिलाषा से अत्यंत दुःखित बना हुआ यह राजा 6 अढाइ जाई बाससयाई परमाउयं पालइत्ता' ढाई सौ (२५०) वर्ष की उत्कृष्ट आयु का पालन कर 'कालमासे कालं किच्चा ' अन्त में स्थिति के क्षय होते ही काल प्राप्त होकर, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ' इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'उक्को सेणं सागरोवमहिइएस नेरइएस नेरइयत्ताए उनवन्ने उत्कृष्ट एक सागर की स्थितिवाले प्रथम नरकमें नारकीरूप से उत्पन्न हुआ। वहां के अनंत दुःखों को भोगते २ जब इसकी नारकीय स्थिति पूर्ण हो गई, तब ' से ' अनंतरं ' पश्चात् वह तओ' वहां से મારી પાસેથી છૂટી ન જાય ’, તેથી તેને પ્રાર્થના, સ્પૃહા અને અભિલાષાને કાઇપણ વિષય હાય તા તે એક રાજ્યજ હતા, તેથી રાજ્યમાંજ તેની સ્પૃહા અને અભિલાષા अयम रहेती इती. 'अट्टदुहट्टवसट्टे' मानसिङ हुयो भने शारीरिष्ठ पुष्टोनी પરંપરાથી, અને ઈન્દ્રિયસંબંધી વિષયના સુખાની અભિલાષાથી અહુજ દુઃખિત असो ते राम ' अड्ढाइज्जाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता' मढीसो (२५०) वर्षानु उद्दृष्ट आयुष्य पालन ४रीने 'कालमासे कालं किच्चा ' मन्तमां आयुસ્થિતિને ક્ષય થતાંજ કાળ (મરણ) પામીને इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ' स्थे रत्नप्रभा पृथ्वीना 'उक्कोसेणं सागरोवमट्ठिइएस नेरइण्सु नेरइयत्ताए उववन्ने' उत्सृष्ट श्रेष्ठ सागरीयभनी स्थितिवाणा प्रथम - पहेला-नरम्भां नारडी पाज़े उत्पन्न થયા. ત્યાંના અનંત દુ:ખોને ભાગવત ભાગવત જ્યારે તેની નારકીની સ્થિતિ પૂરી 9 4 6 4 શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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