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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु. १, अ० १, जात्यन्धविषये भगवदुत्तरम् . ८५ राहसिकेन भक्तपानेन 'पडिजागरमाणी२' प्रतिजाग्रतीर-पालयन्ती२ 'विहर' विहरति । 'तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ' ततः खलु स भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-'इच्छामि णं भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए' इच्छामि खलु हे भदन्त ! अहं युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् मृगापुत्रं दारकं द्रष्टुम् । भगवानाह-'अहामुहं देवाणुप्पिया !' यथासुखं हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुखं भवेत् तथा क्रियतामित्यर्थः । 'तए णं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया कुरूप अपने पुत्र मृगापुत्र को मकान के एकान्त तलघर (भोयरे) में छिपाकर रखती है, और वहीं पर उसे खाना-पीना देती है. और बडी सावधानी से उसका पालन-पोषण करती है। 'तए णं' इस प्रकार प्रभु के द्वारा कहे जाने पर पश्चात् से भगवं गोयमे' उन गौतम स्वामीने 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसई' श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीनवार प्रदक्षिणापूर्वक वंदना की और नमस्कार किया, 'वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी' वंदना नमस्कार कर के फिर उन्होंने कहा कि- भंते' हे भदन्त ! 'तुब्भेहि अब्भणुन्नाए समाणे अहं मियापुत्तं दारगं पासित्तए इच्छामि' यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो मैं उस मृगापुत्र को देखना चाहता हूँ। इस प्रकार गौतमस्वामी की आकांक्षा देखकर श्रमण भगवान महावीर बोले कि'अहासुहं देवाणुप्पिया!' हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो। 'तए णं' भगवान की इस प्रकार आज्ञा पाकर 'से भगवं મકાનના એકાંત તળીયાના ભાગમાં (ભેચરામાં) છુપાવીને રાખે છે, અને તેને તે ઠેકાણે જ ખાવા-પીવાનું આપે છે, અને ભારે સાવધાનીથી તેનું પાલન-પોષણ કરતી २९ छ. 'तए णं' मा प्रभारी प्रभुना द्वारा 20 पात सामनीने पछी से भगवं गोयमे' ते गौतम स्वाभीमे 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसई' श्री श्रमण ભગવાન મહાવીર સ્વામીને ત્રણવાર પ્રદક્ષિણપૂર્વક વંદના અને નમસ્કાર કર્યા. वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी' 4 नम२४।२ ४ीन शशथी तेभणे , 'मंते' हे नत ! 'तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे अहं मियापुत्तं दारगं पासित्तए इच्छामि' मा५ माज्ञा पापोतो ते भृगापुत्रने मेवानी । रामु छु. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીની ઈચ્છા જોઇને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર બેલ્યા કે'अहासुहं देवाणुप्पिया!' हेवानुप्रिय! तमने रे रे सुम थाय तेम ४२). શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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