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________________ सुर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'परिग्रहविरमण'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८९७ काँस्तान्-कथम्भूताँस्तान् शब्दान् इत्याह-- ' अक्कोसफरुसखिसणअवनाणणतज्जणनिभंछणंदित्तवयणतासणउक्कूजियरुण्णरडियकंदियणिग्धुटरसियकलुणविलवियाइं ' आक्रोशपरुषखिसनावमाननतर्जननिर्भत्सनदीप्तवचनत्रासनोत्कूजितरुदितरटितक्रन्दितनिघुष्टरसितकरुणविलपितानि-तत्र-आक्रोशः = ' रे दुष्ट ! म्रियस्वे ' त्यादिवचनम् , परुषं-रे मूर्ख ! रे चौर ! इत्यादि, खिंसनम्-निन्दावचनं 'कुशीलोऽसि, निर्लज्जोऽसी' त्यादिरूपम् , अवमाननम् अपमानजनकवचनं, त्वङ्कारादिरूपम् , तर्जनम् 'ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! ममावज्ञायाः फलम् ' इत्यादिरूपम् निर्भर्सनम् 'अपसर रे निर्दय ? मम दृष्टिपथादित्यादिरूपम् , दीप्तवचनम् कुपितवचनम्-त्रासनम्=अन्धकारादौ फेत्कारादिरूपः शृगालादिशब्दः, उत्कूजितम्निमित्त वे उन अमनोज्ञ पापक शब्दों को कहते है—(अकोसफरुस-खिसण-अवमाणण- तज्जण-निन्भच्छण-दित्तवयण-तासणउक्कूजिय-रुण्ण-रडिय-कंदिय--णिग्घुट्ठ-रसिय-कलुण-विलवियाई) 'रे दुष्ट ! मर जा' इत्यादि प्रकार के जो शब्द होते हैं-वे आक्रोश शब्द हैं, कठोर शब्दों का नाम परुष है-जैसे-'ओ मूर्ख ! अरे ओ चौर !' आदि । निंदात्मक शब्दों का नाम खिंसन है, जैसे-'तु बडे खोटे स्वभाव का है, तू बड़ा बे शरम है ' इत्यादि । 'तू' आदि शब्द अपमान जनक शब्द हैं। जिन शब्दों से दूसरों को डाटना होता है वे तर्जना शब्द है, जैसे- ओ दुष्ट ! अवज्ञा करने का फल मैं तुझे बताऊँगा । तथा 'ओ निर्दय । मेरे सामने से हट जा' इत्यादि प्रकार के वाक्य निर्भत्सन वाक्य कहलाते हैं । कुपित वचनों का नाम दीप्तवचन है । अंधकार आदि में फुत्कार आदि रूप शब्दों का नाश पा५४ शहोने सतावे छे..“ अक्कोस-फरुस-खिसण-अवमाणण-तज्जणनिब्भच्छण-दित्तवयण-तासण-उक्कूजिय-रुण्ण-रडिय-कंदिय-णिग्धु-रसिय-कलुण -बिलवियाई" " दुष्ट ! भरी" छत्याहि ४२॥ शहोने माशg કહે છે, કઠેર શબ્દને પરુષ શબ્દ કહે છે, જેવાં કે “ એ મૂર્ખ ! અરે ઓ यो२” मा ५२५ शwो छ. “तुं घ! २५ स्वभावाणी छ, तु घरी। मेशरम छ" माहि निहत्म होने जिसन छ. “तु" माह अ५માનજનક શબ્દો છે. જે શબ્દો દ્વારા બીજાને ધમકી અપાય છે તે શબ્દને તને શબ્દો કહે છે, જેવાં કે “રે દુષ્ટ મારી અવજ્ઞા કરવાનું ફળ હું તને ચખાડીશ” તથા ““અરે નિર્દય ! મારી નજરથી દૂર થા” ઈત્યાદિ પ્રકારનાં વાકયોને નિર્ભસના વાકય કહે છે. ક્રોધયુક્ત વચનને દીપ્ત વચન કહે છે. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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