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________________ - - -- - सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू०५ संयताचारपालकस्यस्थितिनिरूपणम् ८८१ पुष्करपत्रमिब-कमलपत्रमिव 'निरुवलेवे ' निरुपलेपः-भोगगृद्धिलेपापेक्षया, तथा 'सोमायाए ' सौम्यतया सौम्यपरिणामेन 'चंदो इव' चन्द्र इव, तथा-'सूरोव्व' सूर इव 'दित्ततेए , दीप्ततेजाः = दीप्तं तेजो यस्य सः, तथा-'गिरिवरे मंदरे' गिरिवरो मन्दरः 'जह ' यथा - इव सकलपर्वतश्रेष्ठमेरुरिव ' अचले' अचला परीषहादौ सत्यपि निश्चलः, तथा-' अक्खोभे' अक्षोभः क्षोभवजित:निस्तरङ्गः, 'सागरोव्व' सागर इव 'थिमिए' स्तिमित:-कषायतरङ्गवर्जिनः, तथा-' पुढवी विव' पृथिवीव 'सव्वफासविसहे' सर्वस्पर्शविषहः-शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थ?' तथा-' तवसावि य' तपसाऽपि च हेतुभूतेन ' भासरासिछ. न्नेव ' जाततेए' भस्मराशिच्छन्न इव जाततेजाः, यथा-भस्माच्छन्नो बहिरुपरिशुद्ध सुवर्ण की तरह वह रागादिकरूप क्षार से रहित होने के कारण अपने निजरूप से सम्पन्न हो जाता है। ( पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे) कमल पत्र की तरह भोगों में गृद्धिरूप लेप से वह रहित बन जाता है । (सोमायाए चंदोइव ) सौम्यता से वह चंद्र की तरह (सूरोव्वदित्ततेए) सूर्य की तरह वह दीप्त तेज चमकने वाला हो जाता है। तथा (गिरिवरे मंदरे जह अचले) गिरि वर सुमेरु पर्वत की तरह वह परिषह आदि के आने पर अचल सुस्थिर बना रहता है। और (अक्खोभो सागरोव्व ) निस्तरंग सागर की तरह अक्षोभ-क्षोभ से रहित बन जाता है (थिमिए) स्तिमित-कषायरूपतरङ्गों से रहित बन जाता है। तथा (पुढवीविय सव्वफासविसहे ) जिस प्रकार पृथवी समस्त प्रकार के स्पों को सहन करती है उसी प्रकार वह भी शुभ और अशुभ स्पर्शो में समचित्त हो जाता हैं । ( तवसा वि य भासरासिच्छन्नेब તે રાગાદિક રૂપ ક્ષારથી રહિત હોવાને કારણે પિતાના નિજરૂપથી સંપન્ન થઈ तय छ. '' पुक्खरपत्तंव निरुवलेवे" मा ५३ रेभ. ४थी मसित २ छ तेम ते लोगोथी मसित थ तय छे. “ सोमायाए चंदो इव" सीभ्यतामा ते यन्द्रना वो “सूरोव्व दित्ततेए " सूर्य नीम ते वीस ते-तेवी ४ जय छ. तथा " गिरिवरे मंदरे जह अचले" निश्१ि२ सुभेरुनी भ ते ५२१पड़ माह न तो ५ सयस, सुस्थि२ २ छ. मने " अक्खोभो सागरोव्व" १२॥३५साना व ते क्षोम-क्षोभ २डित सनी लय छे. “ थिमिए" स्तिभित-४पाय३५ तमाथी २डित मनी तय छे. तथा " पुढवीविय सव्व फासविसहे " भ पृथ्वी ५ ४२न। सपनि सहन ४२ छ त ते ५५ शुभ मने मशुल २५ मां समनापाणी थ तय छे. " तवसा विय भास શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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