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प्रश्रव्याकरणसूत्रे चणे ' अकिञ्चन:-निद्रव्यः, 'छिन्नगंथे' छिन्नग्रन्थः-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, तथा-' निरुबलेवे' निरुपलेपः रागद्वेषवर्जितः, तथा-' सुचिमलवरकंसभायणं चेव' सुविमलवरकांस्यभाजनमिव मुविमलं निर्मलं यद्वरकांस्यभाजनं तदिव "विमुत्ततोए' विमुक्ततोयः जललेपरहितः, श्रमणपक्षे सम्बन्धहेतुस्नेहवर्जित इत्यर्थः तथा- संखे विव निरजणे' शंख इव निरञ्जनः, अयं भावः-यथा शंखो निरजनोऽर्थाच्छुक्लो भवति, तथा साधुरपि निरजना=रागादिकृष्णतारहितो भवति । अत एव 'विगयरागदोसमोहे ' विगतरागद्वेषमोह, विगतानष्टा रागद्वेष मोहाः यस्मात् सः तथा 'कुम्मो इव' कूर्म इव इंदिए मुगुत्ते' इन्द्रियेषु गुप्तः-यथा कच्छपो ग्रीवादि स्वाङ्गानि संगोप्य गुप्तो भवति तथैव साधुरपि विषयेभ्य इन्द्रियाणि संगोप्य गुप्तो भवति । तथा-'जच्चकणगं व जात्यकनकमिव=शुद्धकाञ्चनमिव 'जाय. रूवे' जातरूपा रागादिक्षाररहितत्वात् , स्वस्वरूपसंम्पन्नः, तथा 'पुक्खरपत्तं व' अकिंचन भाव से युक्त, (छिन्नगंथे ) बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से वर्जित, बना हुआ वह साधु (निरुवलेवे ) राग और द्वेष से निर्लिप्त बन जाता है और ( मुविमलवरकंसभायणं चेव विमुत्ततोए ) निर्मल कांस्यपात्र की तरह जल से मुनिपक्ष में सम्बन्ध के हेतुभूत स्नेह से रहित होता हुआ ( संखेविव निरंजणे ) शंख की तरह निरंजन-शुक्ल अर्थात रागादिक की कृष्णता से रहित हो जाता है। इसिलिये वह (विगयरागदोसमोहे ) राग द्वेष एवं मोह से रहित हो जाता है तथा ( कुंमो इव इंदिय सुगुप्ते ) कूर्म-कच्छप की तरह इन्द्रियगुप्त कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार कच्छपग्रीवादिक अपने अवयवों को छुपाकर शरीर में गुप्त हो जाता है उसी प्रकार वह साधु भी विषयों से इन्द्रियों को हटाकर सुरक्षित बन जाता है। तथा (जच्चकणगं व जायरूवे) माथी युत, “ छिन्नगंथे" || मने पाल्यन्त२ परियडथी २डित भने त साधु “निरुवलेवे” २२॥ अने द्वेषथी मसित मनीय छ, भने “ सुबिमलवर -कंसभायणं चेव विमुत्ततोए" नि साना पाथीभ थी २हित-मुनिप असपना हतभूत स्नेहथी २डित-ने“ संखेविव निरजणे " मनाव निरन-स३४ मेटले “ विगयरागदोसमोहे " २॥॥हिनी थी २डित थ तय छ, तथा “ कुमो इव इंदियसुगुत्ते" यानी 2 न्द्रियगुप्त કહેવાય છે. એટલે કે જેમ કાચબા પિતાના ગ્રીવાદિક અવયવોને શરીરમાં છુપાવીને ગુપ્ત થઈ જાય છે તેમ સાધુ પણ વિષયમાંથી ઈન્દ્રિયોને હટાવીને सुरक्षित मानी जय छे. तथ। “जच्चकणगं व जायसवे" शुद्ध सुवर्ण नीम
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર