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सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू०११ अध्ययनोपसंहारः संचरितं सम्यगाचरितं, ' सुप्पणिहियं' सुप्रणिहितम्- एकाग्रतया समाराधितं 'होइ' भवति । ' इमेहिं पंचहि वि' एभिः अनुपदं प्रोक्तैर्पञ्चभिरपि 'कारणेहि' कारणैः-भावनारूपैः, कीदृशैः कारणैरित्याह- मणवयणकायपरिरक्खिएहिं' मनोवचनकायपरिरक्षितैः मनोवाकायैः सम्यक समाराधितैः। कियत्कालम् ? इत्याह-' णिच्च' नित्यं सर्वदा ' आमरणंतं ' आमरणान्तं मरणपर्यन्तम् ‘एसो' एषः पूर्वोक्तो ' जोगो' योगः ब्रह्मचर्यरूपो ‘णेयधो' नेतव्यः-पालनीयः, केन ? इत्याह-'धिइमया मइमया' धृतिमता मतिमता, कीदृशोऽयं योगः ? इत्याह-'अणासवो' अनाश्रवः ‘अकलुसो' अकलुषः ' अच्छिदो' अच्छिद्रः 'अपरिस्साई ' अपरिस्रावी ' असंकिलिट्ठो' असंक्लिष्टः ' मुद्धो' शुद्धः सव्वमिणं' इत्यादि।
टीकार्थ- ( एवमिणं) इस प्रकार से यह (संवरस्स दारं ) चौथा ब्रह्मचर्य नामका संवरद्वार ( सम्म संचरियं) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणिहियं भवइ ) स्थिर हो जाता है | इसलिये ( इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांचभावनारूप कारणों से (निच्चं ) सदा (आमरणंतं) जीवन भरतक ( एसोजोगो ) यह ब्रह्मचर्यरूप योग (णेयव्यो) चित्त की स्वस्थता एवं हेयोपादेय की विवेकता से युक्त हुए मुनिजन को पालन करना चाहिये। क्यों कि यह ब्रह्मचर्यरूप योग ( अणासयो ) नूतनकर्मों के आगमन से रहित होने के कारण अनाश्रवरूप है, (अकुलसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुष है, (अच्छिद्दो) पाप का स्रोत
वे सूत्रा२ सा विषयने ५स डा२ ४२di छ-" एवमिणं" त्यादि 21-" एवमिणं " 241 प्रकारे । “ सवरस्स दार” याथु ब्रह्मय नामर्नु स१२६२ “ सम्म संचरियं " सारी रीते पावामा मावे तो “सुप्पणिहियं भवइ" स्थि२ २४ गय छे. “ इमेहिं पंचहिं वि कारणेहि मणवयणकाय प रिरकखिएहि ” भन, क्यन गने आय, मे. अणे योगथी सारी शते सुरक्षित ४२राये से पांच भावना ३५ रथी " निच्चं" सही आमरणंत" वन पर्यन्तना “एसो जोगो" मा प्रायर्य ३५ योग"णेयव्वो” चित्तनी स्वस्थता अने
પાદેયની વિક્તાપૂર્વક મુનિ જેનેએ પાળવો જોઈએ. કારણ કે આ બ્રહ્મश्य३५ योग " अणासवो” नूतन नi मागमन २डित डावाने ४२णे अनासप छ “ अकलुसो” मशुम अध्यवसायथी २डित वाथी २१४सुष छ, "अच्छिद्दो” पापने स्रोत तेनाथी छिन्न थवाने १२ मछिद्र छ. “अपरिस्साई"
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર