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सदशिनी टीका अ० ३ १० ११ अध्ययनोपसंहारः
७६९ 'सुदेसियं ' सुदेशित सदेवमनुजासुरायां पर्पदि सुष्ट्रपदिष्टम् ‘पसत्य' प्रशस्तंसर्वप्राणिहितकरत्वान्मङ्गलमयं ' तइयं संवरदारं ' तृतीयं संवरद्वारं ' समत्तं' समाप्तम् । 'त्तिबेमि' इति अबीमि । अस्याः पूर्वमुक्तः ॥ सू० ११ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापक-प्रविशुद्धगयगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रप. तिकोल्हापुरराजप्रदत्त- जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालवह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालअतिविरचितायां दशमाङ्गस्य श्री प्रश्नब्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां संवरात्मा के द्वितीयेभागेऽदत्तादान
विरमणनामकं तृतीयं संवरद्वारं समाप्तम् ॥ सर्व भाव से इसके विषय में कहा है और (सुदेसियं) देवों, मनुजों तथा असुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्थं ) सर्वप्राणीयों का हितकारक होने से मंगलमय है (तइयं संवरदारं समत्तं ) यह तृतीय संवर द्वार समाप्त हुआ (त्ति बेमि ) ऐसा मैं कहता हूं। अर्थात् हे जंबू ! इस तृतीय संवर द्वार का जैसा कथन मैंने साक्षात् भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही मैंने तुम से कहा हैअपनी तरफ से इसमें मैंने कुछ भी मिश्रित नहीं किया है। ____ भावार्थ--- इस तृतीय संवर द्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार समझा रहे है कि इस तृतीय संवर द्वार का जो मुनिजन तीन करण तीनयोग से सुरक्षित की गई पांच भावनाओं से जीवन भर पालते हैंविषे ४थु छ भने ‘सुदेसियो , मनुष्यो भने मसुथी युत परिक्षामा तेनी पहेश घो छ “ पसत्थं " स प्राणीमान हित४२ना२ वाथी ते भगलमय छ, “ तइयं संवरदारसमत्तं” म। तृतीय सव२६२ समान थयु, त्तिबेमि" मेवुई ई. मेटले
! ॥ तृतीयस१२वा२र्नु કથન જે પ્રમાણે સાક્ષાત ભગવાન મહાવીરના મુખે સાંભળ્યું હતું તે જ પ્રમાણે તમને કહું છું–મારા તરફથી તેમાં કંઈ પણ ઉમેરવામા આવ્યું નથી.
ભાવાર્થ – આ ત્રીજા વરદ્વારને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર સમજાવે છે. કે આ ત્રીજા સંવરદ્વારનું જે મુનિજન ત્રણ કરણ ત્રણ યુગથી સુરક્ષિત કરવામાં આવેલ પાંચ ભાવનાઓ સહિત પાલન કરે છે તે પ્રમાણે પિતાની દરેક
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર