SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदर्शिनी टोका अ.१ सू.३-४ प्रथम अधर्म-द्वारनिरूपणम् पापा:-पापकर्मशीलाः 'पाणवहं' प्राणवधं-माणाः सन्ति येषामिति ते प्राणाः= प्राणिनः 'अर्श आदित्वाद चू, तेषां वधो-हिंसा प्राणवधस्तं जीवघातं 'काति' कुर्वन्ति 'तं' तत्=पथमास्रवद्वारं वक्ष्यमाणं 'निसामेह ' निशामयत-शृणुत । हे जम्बू: ! मम कथयतः श्रृणु इत्यर्थः, अत्रार्षत्वाद् बहुवचनम् ॥सू०३।। सम्प्रति 'जारिसओ' यादृशः, इति द्वारं विकृण्वन् प्राणवधस्वरूपमाह'पाणवहो' इत्यादि। मूलम्-पाणवहो नाम एसो जिणेहिं भणिओ-पावो१, चंडो२, रुद्दो३, खुदो४, साहसिओ५, अणारिओ६, णिग्घिणो७, णिस्संसोट, महन्भओ९, पइभओ१० अइभओ११, बीहणओ १२, तासणओ१३, अणजओ१४, उठवेयणओ य, जिरवयक्खो १६, णिद्धमो१७, णिप्पिवासो१८, णिकलुणो१९, निरयवास निधणगमणो२०, मोहमहब्भयपयट्टओ२१, मरणवेमणस्सो२२, पढमं अहम्मं अव्वयस्स ॥ सू०४॥ नरकादिरूप फल देता है, तथा (जे वि य पाणवहं करेंति ) जो पापी इस प्राणवध को करते हैं यह सब विषय इस प्रथम आस्रवद्वार में कहा जावेगा। सो (तं निसामेह ) हे जंबू ! तुम उसको सुनो। भाव!-सुधर्मा स्वामी इस गाथा द्वारा यह समझा रहे हैं कि हे जंब ! अब इस हिंसारूप प्रथम आस्रवद्वार का स्वरूप, नाम और फल इन तीन द्वाराँसे इस हिंसारूप प्रथम आवद्वारका निरूपण किया जायगा। तथा साथ २ में यह भी स्पष्ट कहा जायगा कि इस प्राणिवध को कौन जीव करते हैं। इस गाथा में "पाणवह" इस पद से प्राण जिनके होते हैं ऐसे प्राणी एकेन्द्रियादिक गृहीत हुए हैं। उनका जो वध है वह प्राणवध है। सू. ३ ॥ "जे विय पाबा पाणवहं करेंति" २ पापा 241 प्रावध ४२ छे, ते समस्त विषय २॥ पडसा माखदारमा वामां माशे. तो “सो तं निसामेह "है यू ! तु ते सा . ભાવાર્થ-સુધર્માસ્વામી આ ગાથા દ્વારા એ સમજાવે છે કે હે જબ! આ હિંસારૂપ પ્રથમ આસ્રવદ્વારનું સ્વરૂપ, નામ અને ફળ એ ત્રણેનું કારે વડે નિરૂપણ કરવામાં આવશે. તથા તેની સાથે એ પણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે से प्रावध ज्या (पापी) ०१ ४२ छ. 2. गाथामा “पाणवह" से पहथीनने પ્રાણ હોય છે તેવાં એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણી ગ્રહણ કરાયેલ છે. તેમને જે વધે છે तन प्राणु५ ४ छ. ॥ सू. 3॥ શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy