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________________ ७४४ प्रश्रव्याकरणसूत्रे अथ कथम्भूते उपाश्रये साधुभिर्न वस्तव्यम् ? इत्याह- ' आहाकम्मबहुले ' आधाकर्मबहुल: =आधानम्-आधातया, अर्थात् साध्वर्थ यत्पट्कायोपमर्दनरूपं कर्म तेन बहुलो व्याप्तो 'जे' यः एवं विध उपाश्रयो ' से ' स वर्जयितव्यः । अनेन अदचादानविरमण लक्षण मूलगुणाशुद्धेः परिहारः उक्तः । स दोपवसत्युपभोगेन मूलगुणहानिर्भवतीति भावः । तथा ' जत्थ ' यत्र - ' अतो ' अन्तर्भागे 'बाहिं ' बहिर्भागे, 'मज्झे य' मध्ये च ' आसियसम्मज्जि ओसित सोहियछाणदुमणलिंपण अणुलिंपण जलणभंडचालण ' आसक्ति संमार्जितोत्सिक्तशोधितछाणधवलनलेपनानुलेपनज्वलनभाण्डचालनम् - तत्र - आसिक्तम् = आसेचनम् = उदकादिच्छोटनमित्यर्थः, सम्मार्जितम् = शलाका हस्तेन मार्जन्येत्यर्थः, कचवरसंशोधनम्, शोधितं = भित्यादि संलग्नजालाद्यपनयनेन शुद्धीकृतं 'छाण' छाणं छगणनंगोमयेन संस्करणम् दुमणं धवलनं-सेटिकादिना मित्यादेरुज्ज्वलीकरणम्, 1 , कम्मबहुले य जे से) और जो उपाश्रय आधाकर्म बहुल हो - साधु के निमित्त पटुकाय मर्दनरूप कर्म से व्याप्त हो उसमें साधु को नहीं वसना चाहिये । क्यों कि ऐसे उपाश्रय में रहेने से साधु के इस अदत्तादानविरमणरूपमूलगुण की शुद्धि नहीं रहती है । और नहीं रहने से इस मूलगुण की शुद्धि रहती हैं। तात्पर्य इसका यह है कि सदोषवसति के उपभोग से साधु के मूलगुणों की हानि होती है यही बात "अहाकम्मबहुलेय जे से" इस सूत्रांश द्वारा प्रदर्शित की गई है। तथा ( जत्थ अंतो बहि मज्झे य) जो उपाश्रय भीतर में बाहिर में और मध्यभाग मैं ( आसियसंमजि ओसित्तसोहिय छाण- दुमणलिपण अणुलिंपण-जलणभंडचालणं) पानी से छिड़का हुआ हो, बुहारु-संमार्जनी से जहां का कूडा कचरा साफ कर दिया गया हो, भीत आदि पर लगे हुए जाले जहां उतार दिये गये हों, जो गाय के गोबर से लीपा गया हो, चुने आदि से સાધુએ રહેવું આ 66 સાધુને નિમિત્તે છકાય મનરૂપકથી વ્યાસ હાય, તેમાં જોઇએ નહીં. કારણ કે એવા ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સાધુના આ અદત્તાદાન વિરમણુરૂપ મૂળ ગુણેાને હાનિ થાય છે, એ જ સૂત્રાંશ દ્વારા પ્રગટ કરેલ છે. તથા અંદર, બહાર અને મધ્ય ભાગમાં दुमण लिंपणअणुलिंपणजलणभडचालणं " पाणी કચરા સાફ કર્યાં હાય, દીવાલ આદિ પર લાગેલાં જાળાં જ્યાંથી ઉતારી લીધાં હોય, જે ગાયનાં છાણથી લીંપેલ હોય, ચુના વગેરેથી જેની દીવાલે વાત अहाकम्म - बहुले य जेसे " जत्थ अंतो वहिं मज्झे य" ने उपाश्रय " आसियसंमज्जिओसित्तसोहियछाण छांटेस होय, सावरलीथी त्यांना શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર 66
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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