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प्रश्रव्या
लोलोऽलोकं भणेत् ॥७॥ 'कंबलस्स' कम्बलस्य 'पायपुंछणस्स' पादपोन्छनस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥८॥ तथा 'सीसस्स' शिष्यस्य 'सीसणीए' शिष्याया वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥९॥ 'अन्नेसु' अन्येसु 'एबमाइएसु' एवमादिकेषु एवं प्रकारेषु बहुषु कारणशतेषु प्राप्तेषु लुब्धो लोलोऽलोकं भणेत् ॥ १० ॥' तम्हा' तस्मात् कारणात् लोमो न सेवितव्यः । एवम्-अमुना प्रकारेण ' मुत्तीए' मुक्या-निर्लोभतारूपया भावितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीबः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्यार्जवसंपन्नो भवति ॥ सू०६ ।।
॥ इति तृतीया भावना ॥ लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) इसी तरह वस्त्र अथवा पात्र के लिये चंचल चित्त बना हुआ वह लोभी झूठ वचन बोल सकता है ( कंबलस्स पायपुंछणस्स वा करण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) कम्बल अथवा पादपोंछन के निमित्त को लेकर वह चंचल चित्त बना हुआ लोभी मृषावादि कह सकता है ( सीसस्स सीसणीए वा करण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) शिष्य अथवा शिष्या के निमित्त लुब्ध वह चंचलचित्त होकर मृषाभाषण करता है ( अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कोरणसएसु लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) इसी तरह और भी इनसे सैकड़ों कोरणों को निमित्त करके वह लोभी चंचल चित्त होकर झूठ बोल सकता है (तम्हा लोहो न सेवियव्चो) इसलिये लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। (एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा) इस प्रकार निलौभतारूप तृतीय भावना से वासित हुआ अंतरात्मा-जीव (संजयकरचरणनयनवयणो) अपने कर. चरण, नयन और मुखकी प्रवृत्ति को यत्नाचार से संयमित पत्तस्स वा कएण लुद्धी लोलो अलियं भणेज्ज" . प्रमाणे पख पात्रन भाट यय वित्त थयेस ते सोमी असत्य वयन मासी शॐ छ. "कंबलस्स पायपुंछणस बा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज" अस है ५५२७॥ भाटते न्याय वित्त मनेत सामी भृषावा डीश छ. “सीसस्स सीसणीए वा करण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज" शिष्य अथवा शिष्याने निभित्तो समय ते या चित्त भृषालाषा ४२॥ श त. “ अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कारण. मएस लडो लोलो अलिय भणेज्ज" २ रीते ॥ सिवायना से आणाने निमित्त ते खाली जयित्त ने असत्य मारी श छ. “ तम्हा लोहो न वियवो " तेथी सोन सेवन ४२वायोग्य नथी. “ एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा” मा शत निमिता३५ त्री भावनाथी लावित अनेस म'तरात्मा-१ " संजयकरचरणनयणवयणो” पोताना हाथ, ५१, नयन मन भुभनी प्रवृत्तिने यतनापू ४ सयभित ४२री से छे. मने "सूरो” पाताना सत्यव्रतना पासनमा
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર