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________________ सुदर्शिनी टोका अ० २ स० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् हिंसासावध संप्रयुक्तं, तत्र-हिंसामाणिवधः, सावद्यम्-पापयुक्तसंलापादि, ताभ्यां संपयुक्तं सहितं यत्तत् , पुनः किंभूतम् ? ' भेयविकहकारकं' भेदविकथाकारकम् , भेदः = चारित्रभेदः, विकथा = राजकथादिः, तत्कारकं यत् तत् , तथा'अणत्थवायकलहकारकं ' अनर्थवादकलहकारकम् = तत्र - अनर्थों = निरर्थको यो वादः सोऽनर्थवादः निष्प्रयोजनो जल्पः, कलहो-विग्रहः, तत्कारकं यत्तत् , तथा-'अणज्ज' अन्याय्यम्-न्यायवर्जितम् , तथा 'अवचायविनायसंपउत्तं' अपवाद विवादसंप्रयुक्तम् , अपवाद: परदूषणकथनं, विवादः चाकलहः, ताभ्यां संप्रयुक्तं यत्तत् , तथा ' वेलंबं ' विडम्बकं-परविडम्बनाकारकम् , तथा-'ओजधेज्ज बहुलं' ओजो धैर्यवहुलम्-ओजः अहंकारः,आवेशो वा, धैर्य धृष्टता, ताभ्यां बहुलं व्याप्तम् , अत एव निल्लज्ज' निर्लज्ज-लज्जा रहितम् , पुनः ‘लोगगरहणिज्ज' लोकगर्हणीयम् साधुजननिन्दितम् , येन सत्येन परस्य हिंसा मर्मोंद्धाटनादिकं वा भवेत्तत् ' दुट्टि' दुर्दृष्टम्-असम्यग्दृष्टम् , ' दुस्सुयं ' दुःश्रुतम्(अणज्जं) जो न्यायानुकूल न हों, (अववायविवाय संपउत्तं ) अपवाद, विवाद से युक्त हों वे भी नहीं बोलना चाहिये। पर के दूषणों का कहना यह अपवाद है, वाकलह का नाम विवाद है । इसी तरह (वेलंब) जो पर की विडम्बना के कारक हों तथा (ओजधेज्जबहुलं) जिन सत्य वचनों के बोलने में बोलने वोले का अहंकार भाव ज्ञात होता हो अथवा आवेश प्रकट होता हों, धृष्टता ज्ञात होती हो ऐसे वचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा (निल्लज्ज ) जिन सत्यवचनों के बोलने में लज्जा जाती हो और (लोकगरहणिज्ज) साधुजन जिन वचनों की निंदा करते हो ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये । तथा (दुट्टि) जिन सत्य वचनों से परप्राणी की हिंसा अथवा मर्मका उद्धा. न्यायानुन डाय, “ अवायविवायसंप उत्तं " २५५१६, विवाथी युत हाय તે પણ બોલવાં જોઈએ નહિ. પારકાં દૂષણોને કહેવાં તે અપવાદ છે અને वाणीना सहने विवाह ४ छ, से प्रमाणे . वेलब" ५२नी विडमना ४२ना२ 1य तथा " ओजधेज्जवहुल" ? सत्य क्या मासाथी मोसनाने। અહંકાર ભાવ જણાતો હોય અથવા આવેશ પ્રગટ થતો હોય, ધૃષ્ટતા જણાતી डाय, मेवा वयन ५९॥ नमोसन तथा “निल्लज्ज" सत्य वयन मापामा clerod ril हेय भने “ लोयगरहणिज्जं " साधुन क्यानी નિંદા કરતાં હોય એવાં વચન સત્ય હોય તે પણ બોલવાં જોઈએ નહીં, तथा " दुट्टि" सत्य क्यनयी ५२ प्राणीनी हिसा यती डाय, अथवा શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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