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प्रश्नव्याकरणसूने वक्ष्यामि त्वां प्रति प्ररूपयिष्यामि। तत् कीदृशमित्याह-' अण्हये 'त्यादि'अण्हयसंवरविणिच्छियं' आस्रवसंवरविनिश्चितं, आस्रवन्ति आगच्छन्ति कर्मजलानि आत्मसरसि यैस्ते आस्रवाः कर्मवन्धहेतुभूताः प्राणातिपातादयः, यद्वा-आस्रवणम्-आस्रवः-आगमनम् । स द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो यज्जलान्तर्गतनावादौ छिद्रेर्जलागमनम् । भावतस्तु-प्राणातिपातादिभिरात्मनि कर्मागमनम् । संसारसागरान्तर्गतात्मनौकायां प्राणातिपातादिछिद्रः कर्मजलाग मनमिति भावः। स प्राणातिपातादिरूपः पञ्चविधः। संत्रियन्ते अतिरुद्ध्यन्ते से ऐसा कहा-'जंबू इणमो०' इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्र में "जंबू" यह पद संबोधोन अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इससे यह लक्षित होता है कि सुधर्मास्वामी जंबू स्वामी से कहते हैं कि (जंबू इणमो) हे जंबू ! मैं अनुपद वक्ष्यमाण प्रश्न व्याकरणरूप शास्त्र (वोच्छामि) तुमको कहूँगा। (अण्हयसंवरविणिच्छियं) इस शास्त्र में आस्रव एवं संवर का निर्णय उनके लक्षणो एवं भेदादिकों के कथनःपूर्वक किया गया है। "विणिच्छियं" पद का अर्थ है विशेषरूप से निर्धारित करना। तथा आस्रवका अर्थ है कर्मबंधके हेतुभूत प्राणातिपातादिक । इनके द्वारा ही आत्मरूपी तालावमें जलतुल्य कर्मों का आगमन होता रहताहै। जिस प्रकार तडाग में जल के आने के लिये नाले हुआ करते हैं उसी प्रकार आत्मा में भी प्राणातिपात आदि रूप नाला द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप जल का आना होता रहता है। अथवा-आना यह-आस्रव है यह आस्रव द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। 43 पूछाता स्थवि२ मा सुधा ते ४५ अ॥२ने धु-"जंबू इणमो” त्याle.
साथ-सा सूत्रमा “ जंबू " ५६ समाधान सभा १५२यु छ. तेथी से सक्षित थाय छ ॐ सुधास्वामी स्वामीन ४३ छ “ जंबू टुणमो" ! हु मा नीय प्रमाणे प्रश्नव्या४२३३५ "वोच्छामि" तभने ४ही. ".अण्यसवरविणिच्छिय " मा शाखमा मात्र અને સંવરદ્વારને નિર્ણય તેમનાં લક્ષણો અને ભેદાદિના કથનપૂર્વક કરવામાં भाव्य। छ. “विणिच्छियं" पहने। म विशेष३पे निणित ४२३); तथा मासવનો અર્થ કર્મબંધના કારણરૂપ પ્રાણાતિપાતાદિક થાય છે. તેમના દ્વારા જ આત્મારૂપી તળાવમાં જળ સમાન કર્મોનું આગમન થયા કરે છે. જેમ તળાવમાં પાણી આવવા માટે નાળાં હોય છે, તે જ પ્રમાણે આત્મામાં પણ પ્રાણાતિપાત આદિપ નાળા દ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મરૂપ જળનું આગમન થતું રહે છે. અથવા આવવું તે આસ્રવ છે. તે આસવ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારને
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર