________________
६१२
प्रश्नव्याकरणसूत्रे दीयतामस्मभ्य " मित्यादिरूपया, 'नवि सेवणया' नापि सेवनया-नापि सेवावृत्त्या, समुदायेनाह-'न वि मित्तयपत्थण सेवणाए ' नापि मित्रता प्रार्थना सेवनया भैस गवेषितव्यम् । तर्हि कथं गवेषितव्यम् ? इत्याह-' अण्णाए' अज्ञातः धनिकोऽयं प्रबजितः' इति दायकजनैरज्ञातः, ' अगड्रिए ' अगृद्धाः= आहारादिषु गृद्धभाववर्जितः, 'अदुट्टे' अद्विष्टः-आहारेषु दायकेषु वा द्वेषभाववर्जितः, 'अदीणे' अदीन: दीनतावर्जितः, 'अविमणे' 'अविमना:-अलाभादिप्रयुक्तमानसिकविकाररहितः, 'अकलुणे' अकरुणः स्वदुःखाप्रदर्शकः 'अविसाई' अविषादी दायक-दाता के साथ मित्रता करके, “आप दाता हैं-याचकों के संरक्षक हैं, हम याचक हैं अतःआप हमें भिक्षा दीजिये ऐसी दाता से प्रार्थना करके, तथा दाता की सेवा वृत्ति करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । इसी तरह इन तीनों बातों को एक साथ किसी दाता के साथ प्रयुक्त करके भिक्षा की गवेषणा साधु को नहीं करनी चाहिये । किन्तु (अण्णाए अगडीए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी-जयण-घडण करणचरिंय विनय गुणजोग संपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए ) अज्ञात-दायक (दाता) जनों से " यह साधु धनिक थे और धनिक अवस्था से दीक्षित हुए हैं" इस रूप से अज्ञात बनकर अगृद्ध-आहार आदि में गृद्धभाव से वर्जित होकर, अद्विष्ट-आहार अथवा दाता में द्वेषभाव से विहीन होकर, अदीन-दीनता के भाव से रहित होकर, अविमना-भिक्षा के नहीं मिलने पर मानसिक विकार से
સંરક્ષક છે, અમે યાચક છીએ, તે આપ અમને ભિક્ષા આપો” એવી દાતાને પ્રાર્થના કરીને તથા દાતાની સેવાવૃત્તિ કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવી જોઈએ નહી. એ જ રીતે એ ત્રણે બાબતને દાતા પાસે એક સાથે પ્રયોગ કરીને સાધુએ मिक्षानी गवेष! ४२वी ने नही ५५ " अण्णाए अगइिढए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंकजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुण जोगसंपउत्ते भिक्खु-भिक्खेसणाए णिरए" अज्ञात-" - साधु पनि तi એિટલે કે ધનિક સ્થિતિમાંથી દીક્ષિત થયેલ છે” એ વિષે દાતાઓથી અજ્ઞાત २डीने. अगृद्ध-२।४।२ माहिम शृद्ध माथी २डित मनाने, अद्विष्ट-- २ मथा प्रत्ये द्वेष भाव २डित यईने, अदीन-हीनताना माथी २हित. थने, अविमना-मिक्षा न भव। छतi ५४५ मानसि वि४२थी २हित ने अकरुण-3 ५४ ५४ारे पोताना भने ।। ५५] ते प्राट नही रीन,
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર