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________________ सुदर्शिनी टोका अ. १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ६११ गवेसियव्वं ' भैस गवेषितव्यम् । तथा 'नवि भेसणाए' नापि भीषणयादायकभयोत्पादनया, ' न वि तज्जणाए' नापि तर्जनया-" ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! इत्यादि तिरस्काररूपया 'न वि तालणाए' नापि ताडनया-चपेटादिदानरूपया, समुदायेनोच्यते-' न वि भेसणतज्जणतालणाए' नापि भीषणतर्जन ताडनया भैक्षं गवेषितव्यम् । तथा 'नवि गारवेणं' नापि गौरवेण 'अहं क्षत्रियोऽस्मीत्याद्यभिमानेन, ' न वि कुहणाए ' नापि कुहनया क्रोधेन, 'न वि वणिमगयाए' नापि वनीपकतया-याचकवृत्त्या, समुदायेनाह—'न वि गारवकुहणवणिमगयाए' नापि गौरवक्रोधवनीपकतया भैक्षं गवेषितव्यम् । तथा'न वि मित्तयाए' नापि मित्रतया-दायकेन सह मैत्रीभावोत्पादनेन, न वि पत्थणाए' नापि प्रार्थनया, " यूयं दायकाः, याचकरक्षकाः वयं याचकाः, करना साधु को योग्य नहीं है। इसी तरह (न वि भेसणाए, नवितजणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तजण-तालणाए भिक्खं गवेसियव्वं ) दायक (दाता ) को भय का उत्पादन करके, “ रे दुष्ट में तुझे बतलाऊँगा" इस प्रकार दाता का तिरस्कार करके, दायक (दाता) को मोरपीट करके, तथा एक ही साथ एक ही दायक ( दाता ) के साथ भीषणा, तजेना और ताडना करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । तथा-( न वि गारवेणं न वि कुहणाए, न वि वणीमगयाए नवि गारवकुहणवणीमगयाए भिक्खं गवेसियव्वं ) ' मैं क्षत्रिय हूं" इत्यादि अभिमान रूप गौरव से, क्रोध से, एवं याचक वृत्ति से, तथा एक ही साथ गौरव क्रोध एवं याचक वृत्ति से भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । ( न वि मित्तयाए न वि पत्थणाए न वि सेवणाए न वि मित्तय-पत्थण-सेवणाए भिक्खं गवेसियब्वं ) तथा न वि तज्जणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तज्जण-तालणाए भिक्खं गवेसियव्व" हाताने मय मतावान “२ दुष्ट हुतने मतावी. श” से રીતે દાતાને તિરસ્કાર કરીને, દાતાને માર મારીને તથા એક સાથે દાતા પ્રત્યે ભીષણ તર્જના અને તાડન કરીને ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી જોઈએ નહીં तथा “ न वि गारवेणं, न वि कुहणाए, न वि वणीमगयाए न वि गारवकुणवणीमगयाए भिक्खं गवेसियव्व', "इ त्रीय छु” माहि मलिभान३५ ગૌરવથી, ક્રોધથી, અને યાચક વૃત્તિથી તથા એક સાથે ગૌરવ, કોધ અને याय: वृत्तिथी ५९॥ भिक्षानी गवेषा ४२वीय नही." न वि मित्तयाए, न वि पत्थणाए, न वि सेवणाए, न वि मित्तय-पत्थण-सेवणाए भिक्खं गवे. सियव" तथा हातानी साथे मित्रता परीने, "मा५ हात छौ, यायाना શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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