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________________ ५४२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे यमई' महामोहमोहितमतयः-महामोहेन-प्रकृष्टोदयचारित्रमोहनीयेन मोहिता मतिर्येषां ते तथोक्ताः, ' तमोसंधयारे' तमिस्रान्धकारे, तमिस्रा-रजनी तद्वद् योऽन्धकारो आज्ञानान्धकारस्तस्मिन् 'तस थावरमुहुमबायरेसु' त्रसस्थावरसूक्ष्मबादरेषु तया ' पज्जत्तमपज्जत्तग एवं जाव' पर्याप्तापर्याप्तक एवं योवत् अत्रयावच्छब्दादिदं संग्राह्यम्-पर्याप्तापर्याप्तकसाधारणप्रत्येकशरीरेषु तथा-अण्डज पोतज -रसज-जरायुज-संस्वेदजोद्भिज्जोपपातिकेषु नारकतिर्यगदेवमनुष्येषु यथासम्भवं जरामरणरोगबहुलेषु पल्योपमसागरोपमाणि यावत् आनादिकमनवदग्रं दीर्घमध्वानं चातुरन्तसंसारकान्तारं ' परियहति ' पर्यटन्ति । ' एसो सो' एष सः (महयामोहमोहियमई ) उनको मति प्रकृष्ट चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से मोहित बनी रहती है। इससे वे न तो एकदेशरूप चारित्र अंगीकार कर सकते हैं और न सकलरूप चारित्र ही । अतः ऐसे प्राणी (तमोसंधयारे ) रात्रि के गाढ अंधकार जैसे अज्ञानान्धकार में ही पड़े रहते हैं । (तसथावरसुहुमबायरेसु) और ब्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर इनमें तथा (पज्जत्तमपज्जत्तग) पर्याप्तक अपर्याप्तक ( एवंजाव) इसी प्रकार यावत् शब्द से साधारण प्रत्येक शरीर इन जीवों में तथा अंडज, पोतज, रसज, जरायुज, संस्वेदज, उद्भिज्ज जीवों में एवं औपपातिक देव और नारकियों में (परियहति) जन्म मरण करते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियां जिन जीवों में होती हैं वे स हैं । त्रस नामकर्म के उदय से यह पर्याय जीवों को प्राप्त होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय जिन जीवों में होती है वे ३५. २५५४।२मा प्रवेश परीने “ महया मोहमोहिय मई " तेमनी मति प्रष्ट ચારિત્ર મેહનીય કર્મના ઉદયથી મહિત થયેલી રહે છે. તેથી તેઓ અંશતઃ ચારિત્ર અંગીકાર કરી શકતા નથી અને સકલરૂપ (સંપૂર્ણ) ચારિત્ર પણ 201२ ४२ नथी. तेथी मेवा । “ तमोसधयारे ” त्रिना ढ ४२ ॥ अज्ञाना-५४।२मा २४ ५७॥ २७ छ, “ तसथावरसुदुमबायरेसु” भने त्रस, स्था१२. सूक्ष्म, मरे मामा, तथा "पज्जत्तमपज्जत्ता " ५४४, २५५ो, “ एवं जाव" से ४ प्रमाणे यावत् १५४थी साधा२६१ प्रत्ये: शरी२ मां; तथा २43., पोत, २४, यु४सस्वर, Sler वाम अने मौ५५ति व मने ना२ीमामा “परियट्टति" परिश्रम કર્યા કરે છે. જન્મ મરણ કર્યા કરે છે. જે જીને સ્પશન, રસના, ઘાણ, ચક્ષ અને કર્ણ, એ પાંચ ઇન્દ્રિયો હોય છે તેમને ત્રસ કહે છે ત્રસ નામ કર્મના શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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