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________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् पापकर्मणां विनष्टज्ञानावरणीयादिकर्मणां मूलमित्यर्थः, तथा · अवकिरियव्वं ' अवकरितव्यम् , त्याज्यम् , 'विणासमूलम् ' विनाशमूलम् ज्ञानादिगुणनाशकारकम् , ' वहबंधपरिकिलेसबहुलं' वधबन्धपरिक्लेशबहुलम्बधो-हिंसनं, बन्धोबन्धनम् , तज्जनिता परिक्लेशास्तापाः बहुलाः प्रचुरा यस्मिस्तं तथोक्तम् , तथा -'अणंतसंकिलेसकारणं' अनन्तसंक्लेशकारणम्-अनन्ता ये संक्लेशाः-दुःखानितेषां कारणम् । एतादृशं परिग्रहं चक्रवादयस्तद्भिन्नाश्च नराः संचिन्वन्ति । तेपूर्वोक्ताः 'लोभवत्था' लोभग्रस्ताः 'तं धणकणग रयणनिचयं ' तं धनकनक रत्ननिचयं ' पंडियाचेव' पिण्डयन्तश्चैव संसार-चतुर्गतिलक्षणम् , 'अतिवयंति' भाव वाला होने के कारण यह अशाश्वत है । (पावकम्मनेम ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कारण मूल होने से यह पापकर्म का नेमभूत है। ( अवकिरियव्वं ) मुमुक्षुओं को छोड़ने योग्य होने के कारण यह अवकरितव्यं त्याज्य है । (विणासमूलं ) ज्ञानादिगुणों के नाश का हेतु होने से यह विनाशमूल है । (वहबंधपरिकिलेसबहुलं ) इसके भीतर वध-हिंसा, बंध-बंधन, और परिक्लेश-संताप ये सब बहुत अधिक रूप में हुए हैं। (अणंतकिलेसकारणं) इसीलिये यह जीवों को अनंतसंक्लेश कारण होता है। ऐसे इस परिग्रह को चक्रवर्ती जन आदि तथा इनसे भिन्न जो और मनुष्य हैं वे संचित करते रहते हैं। क्यों कि ये समस्त ही जन ( लोभत्था ) लोभरूप कषाय से ग्रसित होते हैं । (तं घणकणगरयणनिचयं) इसी कारण उस धन, कनक एवं रत्न के निचय का ( पंडियाचेव ) संग्रह करने में ही लगा रहा करते हैं । इसी कारण " पावकम्मनेमं” ज्ञान॥१२jीय मा अनु' भूण ४।२७ जापाथीत पापनि निमित्त ३५ छ, “ अवकिरियव्वं " भुभुक्षाने ते छ।व। योग्य डावाथी ते " अवकरितव्यं " त्यान्य छ, “विणासमूलं " ज्ञानाहि गुणाना नाश ने भाटे ४॥२९५ ३५ डीवाथी ते विनाशभूण छ. “ वहबंधपरिकिलेसकारणं" तेनी અંદર વધ–હિંસા, બંધ–બંધન, અને પરિકલેશ-સંતાપ. એ બધું વધારે प्रभामा २४ छ. “ लोभवत्था " ते १२ ते ७वाने मनात सशસંતાપનું કારણ બને છે. એવા તે પરિગ્રહનો ચક્રવર્તિ આદિ તથા તે સિવાચના બીજા જે માણસો હોય છે, તેઓ સંચય કરતા રહે છે, કારણ કે તે सास “ तं धणकणगरयणनियं" ते राणे तेस। धन, ४, मन. २त्नना सभडन। “पडियाचेव" सड ४२वामा सीन २ छ. थे। શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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