SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 6 , गवेषणं तत्र परायणाः परसम्पत्तिभोगाभिलाषका इत्यर्थः, 'बरागा " वराकाः= दीना: ' अकामियाए ' अकामिकया = अनिच्छयाऽपि विणिहुतिदुक्खं ' विनयन्ति दुःखं दुखं प्राप्नुवन्ति तथा ' पणेव सुहं णेव पिन्बुदं उवलभति' नैवमुखं नैव निर्वृति- मनः शान्तिमुपलभन्ते = प्राप्नुवन्ति, ते के ? इत्याह- 'अच्चतविउलदुक्खसयसंपलित्ता' अत्यन्तविपुल दुःखशतसम्प्रदीप्ताः = अत्यन्तविपुलम् = अतिविस्तीर्ण यद् दुखतं तेन सम्प्रदीप्ताः संतप्ताः 'परस्स दव्वेहिं जे अविरया ' परस्य द्रव्येषु ये अविरताः - निवृत्तिभावरहितास्तेऽत्र परत्र च नैव सुखं नैव शान्ति चोपलभन्ते इति सम्बन्धः सू० २० ॥ पुष्प आदि पदार्थ भोग और जो बार २ भोगने में आते हैं ऐसे गृह वस्त्र आदि पदार्थ उपभोग हैं । ( वरागा ) ये सदा दीनावस्था संपन्न होते हैं । ( अकामिया ) इनकी यह अभिलाषा नहीं होती है की हम दुःख भोगे परन्तु इन्हें विना इच्छा के भी ( विणिहुति दुःक्खं ) दुःख सहना पडता है । इन्हे ( शेव सुहं णेवणिव्व उवलभंति ) जीवनभर कभी भी सुख नहीं मिलता और न कभी निर्वृत्ति मनको शांति ही इन्हे प्राप्त होती है। कारण की ये (अच्चंत विउलदुक्खसयसंपत्ति ( ) अत्यंत विपुल सैकडो दुःखों से संतप्त होते रहते हैं । इन दुःखो से भी संतप्त होने का कारण यह है कि ये ( परस्स दव्वेहिजे अविरया ) परके द्रव्य को अपहरण करने रूप कुकृत्य से विरतिभाव धारण करने से रहित होते है । इसी कारण इन विचारों को न सुख मिलता है और न शांति ही मिलती है | सू० २० ॥ એક વાર ભાગવવામાં આવે છે એવા આહાર પુષ્પ આદિ પદાથ ભાગ ગણાય છે, અને જે વારંવાર ભાગવાય છે એવાં ઘર, વસ્ત્ર આદિ પદાર્થોને उपलोग उहे छे " वरागा " तेथे हमेश हीन दृशाभां रहे छे, “ अकामियाए " તેમને દુઃખ લાગવવાની ઈચ્છા હોતી નથી, પણ તેમને ઈચ્છયા વિના પણ "विणिहुति दुक्खं" हुःयो सहन उरवा पडे छे तेभने "णेव सुहं णेव णिव्वु उवलभंति” यामुळे लवन उट्ठी पशु सुख भजतुं नथी, अने तेभने उही निवृत्ति - (भननी शांति) पशु प्राप्त थती नथी, अरण ! ते बोओ। “अच्चतवि उलदुक्खसयसंपलित्ता ” अत्यंत वियुस, सेडो दुःपोथी हु:जी थया उरे छे, मे हु:मोथी याहु:भी थवानुं अरागु मे छे तेथे " परस्स दव्वेहिं जे अवरिया " પરધનનું અપહરણ કરવા રૂપકકૃત્યથી વિરકત થઈ શકતાં નથી, તે કારણે તે બિચારાઓને સુખ મળતું નથી અને શાંતિ પણ મળતી નથી ।। સૂ૦ ૨૦ || શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy