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________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १५ कीदृशाश्चौरा कीदृशं फलं लभन्ते ? ३३३ ग्राहकाणां = नानाविधलञ्चग्राहकाणां रिश्वत खोर' इति भाषा प्रसिद्धानां तथा ' कूडकवडमायाणियडि - आयरणपणिहिवचण विसारयाणं ' कूटकपटमायानिकृत्याचरणप्रणिधिवश्चनविशारदानां तत्र कूटं = भ्रमोत्पादनं, कपर्ट= वेशभाषानानारूपधारणं माया = चौरादीन् निग्रहीतुं भिक्षावृत्यादिभिश्छलकरणं, भोजनादिभिरादरसत्कार करणैवैश्चनं निकृतिः तथा प्रणिधिवञ्चनं प्रणिधिना=छलेन एकाग्रचित्तेन वा वञ्चनं यद्वा- मणिधीनां - राजगुप्तपुरुषाणां यद्वञ्चनं तत्र विशारदाः = पागल्भा ये ते तथा तेषां 'बहुविहअलियसयजंपगाणं ' बहुविधालीकशतजल्पकानां = चौरादीनां आदि की शिक्षा से ये राजपुरुष शिक्षित होते हैं ( बिलउलीकारगाणं ) दीन-हीन आदि वचनों को बोल कर चोर आदिको का निर्णय कराने वाले होते हैं, अर्थात्-ये राजपुरुष ऐसे निपुण होते हैं कि चोरों का पता बहु जल्दी लगा लेते हैं, इस प्रकार की उनकी बात चीत का ढंग होता है कि जिससे " यही चोर है " इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है । ( लंचसय गेहयाणं ) ये रिश्वतखोर - घूंस खाने वाले होते हैं । तथा (कूडकवडमायाणियडि आयरणपणिहि-वंचणविसारयाणं ) ( कूड ) कूट में - भ्रमोत्पादन में, ( कवड ) कपट में - वेश भाषा के नानारूप धारण करने में, (माया) माया में चोरोंको पकड़ने के लिये भिक्षावृत्ति आदिसे छल करने में, (नियsि आयरण ) निकृत्याचरण में भोजनादि द्वारा आदर सत्कार से प्रतारणा करने में, तथा (पणिहिवचणा ) प्रणिधि - वञ्चन में कोई बहाने से ठगने में, अथवा राजा के गुप्तचर पुरुषों को ठगने में, ( विसारयाणं ) बड़े विशारद - चतुर होते हैं । (बहुविहअलियसयजंपતે જાણકાર હોય છે विलउलीकार गाणं " दीन-हीन याहि वयनो मोती ચાર આદિને નિય કરનાર હાય છે, એટલે કે તે રાજપુરુષા ચારાને જલ્દી શોધી કાઢવામાં નિપુણ હેાય છે. તેમની વાતચીતની ઢબ એવી હાય છે કે मेथी " आभास थोर छे, " से वात तेभने समलाई लय छे. " लंच, यहा તેવા લાંચીયા હાય છે, તથા कूडकवडमायाणियङिआयरणपणिहिवचणविसारयाणं " 'कूड ફૂડ કરવામાં ભ્રમેાત્પાદનમાં, 66 " 66 ८८ कवड माया માયા ચારાને પકડવાને " पटभां- विविध वेश सेवामां, भाटे लिक्षावृत्ति माहि छ फेसवासां, " नियडिआयरण " નિકૃત્યાચરણમાં ભાજનાદિ દ્વારા આદરસત્કારથી પ્રતારણા કરવામાં. તથા " पणिहिवचणा " પ્રણિધિ વચનમાં, કોઈ પણ બહાને ઠગવામાં उगवामां, “ विसारयाणं " लारे निपुणु होय छे. અથવા રાજાના ગુપ્તચરને बहुविहअलिय सयजंपगाणं " શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર 66 " 66 "" ,"
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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