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प्रश्रव्याकरणसूत्रे 'उच्छलंत ' उच्छलन्ति आकाशे उत्पतन्ति पुनः ‘पञ्चोणियंत ' प्रत्यवनिवृत्तानि अधोगच्छन्ति च यानि 'पाणिय' पानीयानि प्राणिनो वा यत्र स तथा 'पधाविय' प्रधाविताः शीघ्रं गताः 'खरफरुस ' खरपरुषाः वेगातिशयाद् अतिकर्कशाः 'पयंड' प्रचण्डा: दारुणाः ‘वाउलियसलिल' व्याकुलित सलिला:-व्याकुलीकृतानि उन्मथितानि सलिलानि-जलानि यैस्ते तथा ' फुटुंत' स्फुटन्तः परस्परसङ्घर्ष प्राप्य विच्छेद गच्छन्तश्च ये 'वीचिकल्लोलसकुलं' वीचयः-तरङ्गाः कल्लोलाः महातरङ्गास्तैः सङ्कुलो यः स तथेति पूर्वेषां कर्मधारयस्तं तथाविधं 'महासा( उच्छलंत ) आकाश में उछलते हुए (पच्चोणियंत ) फिर नीचे गिरते हुए (पाणिय ) पानी अथवा प्राणी जिन में है ऐसी, तथा (पधाविय ) शीघ्रता से उठी हुई (खरफरुस ) अतिवेग से अत्यन्त कठोर (पयंड) दारुण-भयंकर अतएव (वाउलियसलिल ) जल को मथित जैसा कर दिया ऐसी, तथा (फुटत ) परस्पर के संघर्षसे विच्छिन्न-जुदी जुदी हुई ऐसी (वीचिकल्लोल) छोटी बड़ी तरंगों से (संकुलं) व्याप्त ऐसे समुद्र को, अर्थात्-जो गंगा यमुना आदि नदियों के वेगों से कि जिनका विपुल जल चक्रवाल-समूह पवन के आघात से सर्वतः व्याकुलित होता रहता है, और तटप्रदेश तक आता रहता है, तथा महामत्स्य आदि जलचर जानवर जिसे अत्यंत चंचल बनाते रहते हैं, एवं जो पर्वत आदिकों की महाशिलाओं पर आघातयुक्त होकर अपने स्थान से आगे को बढ़ता रहता है, तथा जो गंभीर एवं विपुल आवत्तों से सदा व्याप्त बना रहता है, तथा जिसमें चंचल होकर पानी अथवा प्राणी बार २ इधर से उधर “गुप्पमाण" व्या “ उच्छलत” मा sendi “पच्चोणियंत" भने ३१ पाछ। नाय ५४di " पाणिय" पाए अथवा भी प्राणी छे, मेवा तथा “पधाविय" ५थी उत्पन्न थतi, " खरफरुस" भतिवेशने पारणे मतिशय ४२ मने “पयंड" २०१४ डावाने २ “वाउलियसलिल” पाएन भन्थन ४२२तु डाय सेवा, तथा "फुट्टत" मे मीलन साथे मथवाथी विछिन्न थतi “ वीचिकल्लोल" नानां मोटी भात माथी “ संकुलं " व्यास सेवा सभुદ્રને, એટલે કે જે ગંગા યમુના આદિ નદીઓના વેગથી કે જેમનું વિપુલ જળ ચક્રવાતના આઘાતથી સર્વતઃ વ્યાકુલિત થતું રહે છે, અને તટપ્રદેશ સુધી આવતું રહે છે તથા મહામત્ય આદિ જળચર પશુઓ જેને અતિશય બનાવતાં રહે છે, અને જે પર્વત આદિની જે મહાશિલાઓ સાથે અથડાઈને પિતાના
સ્થાનથી આગળ વધતું રહે છે, જલ્દી ભરાતું રહે છે, તથા જે ગંભીર અને વિશાળ વમળેથી હમેશાં વ્યાપ્ત રહે છે, તથા જેમાં પાણી અને પ્રાણી ચંચળ
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર