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________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० १ अदत्तादानस्वरूपनिरूपणम् २६३ णिवायवडणं ' दुर्गति विनिपातबर्द्धनं दुर्गतौ= नरकादिके यो विनिपातः=अवशतया गमनं तस्य वर्धनं वर्धकं 'भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकरं-पुनःपुनर्जन्ममरणकरं 'चिरपरिचियं' चिरपरिचितं चिरं जन्मजन्मान्तरेण अविच्छिन्नतया परिचितम् , ' अणुगयं ' अनुगतम्-अनुवृत्तमविच्छिन्नप्रवाहतया प्रवृत्तं, 'दुरंत'दुरन्तं दुःखावसानं- विपाकदारुणत्वात् ' तइयं अधम्मदारं ' तृतीयमधर्मद्वारम्।। सू०१ ।। डणं ) यह करने वालों के दुर्गति-नरकादि में अवश होकर गमनरूप विनिपात का वर्धक होता है । (भवपुणभवकर) पुनः पुनः इसके प्रभाव से संसार में ही जन्म मरण करने पड़ते हैं । (चिरपरिचियं ) भव भव में इस कुकृत्य जन्य पाप का उदय साथ में रहता है। (अणुगयं) इसका प्रवाह विच्छिन्न न होने के कारण यह जीव के साथ अनुगत रहता है । ( दुरंतं ) विपाक समयमें दारुण होनेसे यह दुरन्त होता है। (तइयं अधम्मदारं) इस प्रकार तृतीय अधर्मद्वारका यहां तक स्वरूप कहा। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा तृतीय अधर्मद्वार जो अदत्तादान है उसका स्वरूप निरूपण किया है। वे इसमें कह रहे हैं कि कीसीके धनादिक द्रव्यको ऐसा भय दिखलाकर कि ' मैं तुझे मार डालूंगा, मैं तेरे घरमें आग लगा दूंगा' ऐसा कहकर धनादिका हरण कर लेना अदत्तादान है। इस आदत्तादानका कारण लोभ होता हैं। तथा परके धनमें गृद्धि होती है। तात्पर्य इसका केवल यही है कि विना दी हुई पर की वस्तु को हरण थई 14 छ, “ दुग्गइविणिवायवडण " ते ४२ना२नु हुति-न२४हिमा अवश ने भन३५ विनिपातनु- डाय छ " भवपुणब्भवकरं" तेना ॥२णे पार पा२ ससामा भ२९१ अनुभव। ५छ. “चिरपरिचय" हरे सवमा २८ हुकृत्य ०४न्य पापन य साथे २७ छ. " अणुगय" तेनी प्रवाई मतूट हावाने ४२णे ते पनी साथे मनुगत २ छ “ दुरंतं" विपाउना समये हारुण अने हुरन्त हाय छे. " तइयं अधम्मदार” या प्रमाणे ત્રીજા અધર્મ દ્વારનું સ્વરૂપ અહીં સુધીમાં કહેવાયું ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન નામના ત્રીજા અધર્મદ્રા૨નું સ્વરૂપે પ્રગટ કર્યું છે. તેઓ તેમાં એ બતાવે છે કે કેઈના ધનાદિનું એ ભય બતાવીને કે “ હું તને મારી નાખીશ, હું તારા ઘરને આગ લગા. ડીશ” એવું કહીને ધનાદિકનું હરણ કરી લેવું તે અદત્તાદાન છે. આ અદત્તાદાનનું કારણ લેભ તથા બીજાના ધન પ્રત્યેની લાલસા હોય છે આ બધી વાતનું તાત્પર્ય એ છે કે કેઈ આપણને વસ્તુ ન આપે તેનું હરણ કરવું તે શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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