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प्रश्रव्याकरणसूत्रे शरीरं सादिकं सनिधनम् , शरीरम् आदिसहितम् उत्पत्तिमत्त्वात् , सनिधनं-सविनाशम् अन्तवत्त्वात् , ' इह भवे' अस्मिन् भवे प्रत्यक्षं जन्म, तस्मात् 'एगे भवे' एक एव भवः जन्म नान्यो लोकः, 'तस्स विप्पणासंमि' तस्य विप्रणाशे सति= तस्य शरीरस्य विनाशे सति 'सव्वनासोत्ति' सर्वनाशइति नाऽत्माऽवशिष्यते नाऽ पि च शुभाशुभरूपंकर्म । एवं उक्तरीत्या ' जंपति' जल्पन्ति कथयन्ति तज्जीवतच्छरीरवादिनः । नास्तिकादारभ्य तज्जीवतच्छरीरवादिपर्यन्ताः सर्वे 'मुसावाई ' मृषावादिनः सन्ति ॥ सू०४ ॥ पुनरम्याह-' तम्हा' इत्यादि ।
मूलम्-तम्हा दाणवयषोसहाणं तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाईयाणं नत्थिफलं, नवि य पाणवहे अलियवयणं न चेव चोरककरणं परदारसेवणं वा सपरिग्गहपावकम्मकरणं पि शरीर को ही जो जीव मानने वाले हैं उनका ऐसा कहना है कि यह उत्पत्तिमान होने से सादि है और अन्तवाला होने से विनाशसहित है। (इहभवे एगे भवे ) इस भव में जो इसका जन्म है वही इसका भव है, इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा इसका भव-जन्म नहीं है, क्यों कि (तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति) जब इस शरीर का विनाश हो जाता है तब इस जीव का सर्वनाश हो जाता है फिर इसका अस्तित्व ही नहीं रहता है, शुभ और अशुभ कर्म कुछ भी नहीं रहते हैं, ( एवं ) इस तरह नास्तिक वादी से लेकर शरीर को ही जीव मानने वाले ये सब ही ( मुसावाई ) मृषावादी ( जंपंति ) कहते हैं । अर्थात् ये सब मृषावादी हैं ॥ सू-४॥ જીવ માનનારા છે તેમનું એવું કહેવું છે કે તે ઉત્પત્તિવાળું હોવાથી સાદિ (माह सङितर्नु) छ भने सन्तवाणु हवाथी विनाश युत (सान्त) छे. " इह भवे एगे भवे " म भिमां ने तेना म छ, ते ४ तेनो ભવ છે, તે ઉપરાંત બીજે કઈ પણ તેનો ભવ–જન્મ નથી, કારણ કે " तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति” न्यारे २॥ शश२ने। नाश थाय छे त्यारे આ જીવને પણ સર્વનાશ થઈ જાય છે–પછી તેનું અસ્તિત્વ જ રહેતું નથી, शुभ सने मशुम ४
५५२तुं नथी “ एवं " 20 शत नास्ति: पाटीथी सने शरीरने ०४ ७१मानना२ ते मधाने “ मुसावाई " भुषावादी "जंपति" हे छ. मेटले ते या असत्य पहना२ छ. ॥ सू-४॥
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર