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________________ प्रश्रव्याकरणसूत्रे स्पृशति । जीवस्याऽसद्भावादेव न शुभाशुभकर्मबन्धनमिति भावः। अत एव 'सुकयदुक्याणं' सुकृत दुष्कृतानां-पुण्यपापानां फलमपि ' नत्थि' नास्ति जीवासत्त्वेन तत्फलस्याऽप्यसत्त्वात् । तथा ' सरीरं 'पंचमहाभूइयं ' पञ्चमहा भौतिकंपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशमयं, 'भासंति ' भाषन्ते । तत् कीदृशं भाषन्ते इत्याह-' हेवागजोगजुत्त' हेवाकयोगयुक्तम् , हेवाकः-स्वभावस्तेन योगः-परस्परं संयोगस्तेन युक्तम् , पञ्चभूतानां परस्परं संयोगो वियोगश्च स्वभावाद् भवति, न तत्र किंचिदन्यत् कर्मादि आत्मा वा कारणमस्तीति भावः । केई' केपि बुद्धमतानुसारिणः 'पंचखंधे' पश्चस्कन्धान्-रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काररूपान् भणन्ति-कथयन्ति, तत्र-रूपस्कन्ध,:-पृथिव्यादयो रूपादयश्च १, वेदनास्कंधःनहीं है तो मर कर वही पुनः अपने पुण्य पापकर्मों के अनुसार मनुष्यलोक में अथवा देवादिलोक में जन्मता है, यह कथन असत्य है। तात्पर्य इसका यही है जीव का अस्तित्व न होने से उसके (नत्थिफलं सुकयदुक्कयाणं ) शुभ और अशुभ कर्मों का बंध नहीं होता है। जब शुभ अशुभ कर्मों का बंध ही नहीं होता है तब उनके फल का भी अभाव ही है । तथा ( पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति ) यह जो शरीर है वह वृथिवी, अपू , तेज वायु और आकाश, इन पांचभूत स्वरूप है। (हेवाग जोगजुत्तं) पांच भूतों का यह पारस्परिक संयोग अथवा वियोग स्वभाव से ही होता रहता है । इसमें न तो कोई कर्म ही कारण है और न आत्मा ही । (केई पंच य खंधे भणंति) कितनेक वादी बौद्ध-सिद्धान्तमतानुयायी-ऐसा कहते हैं कि रूप १, वेदना २, विज्ञान ३, संज्ञा ४, જે જીવ નામને કઈ પદાર્થ જ ન હોય તે તે મરીને પિતાના પુન્ય પાપકર્મો પ્રમાણે મનુષ્ય લેકમાં અથવા દેવાદિ લેકમાં જન્મે છે. તે કથન અસત્ય કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જે જીવનું અસ્તિત્વ ન હોય તે તેના “नथि फलं सुकयदुक्कयाणं " शुभ भने अशुभ भन! ५५ मधात! नथी. જે શુભાશુભ કર્મોને બંધ જ બંધાતું ન હોય તે તેના ફળનો પણ અભાવ 1 डाय. तथा “ पंचमहाभूइयं सरीर भासंति " - २ शरी२ छ ते पृथिवी, अ५ (४५), ते, वायु भने २|श, 22. पांय भूत २१३५ छ. " हेवागजोगजुत्तं पांय भूताने। २५.२२५२४ समय अथवा वियोग સ્વભાવથી જ થયા કરે છે. તેમાં આત્મા કે કર્મ કારણરૂપ નથી. “केई पंचेय खंधे भणति " 2 पाम भानना। -मौद्ध सिद्धान्त मतानुयायी थे ४ छ : (१) ३५, (२) वेदना, (3) विज्ञान, (४) संज्ञा શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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