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________________ - - १७८ प्रश्रव्याकरणसूत्रे 'कलाया' कलादा-सुवर्णकाराः 'कारुइज्जा' कारुकीयाः शिल्पिनः 'वंचणपरा' वञ्चनपरा:प्रतारणापराः 'ठग' इतिप्रसिद्धाः 'चारियचाटुयारनगरगोत्तिय परियारगा, चारिकचाटुकारनगर गुप्तिकपरिचारका-तत्र-चारिकाः=गुप्तचराः, चार कारा मुखमाङ्गलिकाः, नगरगुप्तिका: कोट्टपालाः, ' कोतवाल' इति प्रसिद्धाः, परिचारका सेवकाः, विषयभोगतत्पराश्च, ' दुहवाइसूयकअणबलभणिया' दुष्टवादि सूचकऋणबलभणिताः, तत्र दुष्टवादिनः असत्पक्षग्राहिणः सूचका-पिशुनाः, ऋणबलभणिताः ऋणे-ऋणग्रहणे बला: बलवन्तस्तै भणिताः उक्ताः ' देहि मे ऋण' मित्युत्तमर्णेनोक्ता अघमर्णा इति भावः ‘पुव्वकालियवयणदच्छा' पूर्वकालिकवचनदक्षा वक्तुकामस्याभिमायमालक्ष्य पूर्वमेव ब्रुवन्ति ये ते पूर्वकालिकवचनदक्षाः, 'साहसिका' सहसा-अविचार्य भाषन्ते ये ते साहसिकाः, लहुस्सगा' (पडकारगा) जो तन्तु वाय-जुलाहे होते हैं ( कलाया) कलाद-सुवर्णकार -सुनार होते हैं, ( कारुइज्जा) कारकीय-शिल्पी-कारीगर होते हैं, (वंचणपरा ) जो ठग होते हैं, (चारिय ) गुप्तचर होते हैं, (चाटुयार ) चाटुकार-खुशामदी होते हैं, (नगरगोत्तिय ) नगरगुप्तिक-कोतवाल होते हैं, (परियारग) परिचारक-सेवक तथा विषयभागों में तत्पर होते हैं, (दुहवाई ) जो असत्पक्ष को ग्रहण करने वाले होते हैं, (सूयग) सूचक-चुगल खोरहोते हैं, (अणबलभणिया) मेरा ऋण अदा करो इस प्रकार जिस देनदार से साहूकार कहता है वे ऋण बलभणित कर्जदार व्यक्ति कहने वाले के अभिप्राय को लक्षित करके पहिले से ही बोलने वाले (पुव्वकालियवयणदच्छा) पूर्वकालिक वचनदक्ष मनुष्य, (साहसिया ) विना विचारे बोलने वाले मनुष्य, (लहुस्सगा) अपने पोतानुं शु४२॥ यावे , “ पडकारगा"२ १४४२ सय छ, “ कलाया" सानी डाय छ, “कारुइज्जा" अशा हाय छ, “वंचणपरा" 1 डाय छ, "चारिय " गुप्तयR डाय छे. “ चाटुयार” याटु॥२- मुशामतीय डाय छे. " नगरगोत्तिय " नगरशुति-छोटवाण हाय छ, “ परियारग” परिया२४-सेव४ તથા વિષય ભોગેના ગુલામ હોય છે, જે અસત્ય પક્ષને ગ્રહણ કરનાર હોય छ," दुवाई" २ मसत्यपक्षने, अड ४२नार हाय छ, “सूयग" सूय:युगलीभार हाय छ, “अणबलभणिया” 'भा३ * भरपाई ।' પ્રમાણે જે દેણદારને શાહુકાર કહે છે તે જણબલ ભણિત દેણદાર વ્યક્તિ, કહે. ना२ना मनिप्रायने सक्षित रीने पडसेथी माली ना२ डाय छ, “पुव्वकालिय वयणदच्छा" पूर्व मापेस क्यनथी मायेसो भनुष्य, “ साहसिया " वियार्या विना मोदना२ मनुष्य, “ लहुस्सगा" पोतानी तन तुच्छ भानना२ શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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