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प्रश्रव्याकरणसूत्रे स कीदृशो निर्घोषः ? इत्याह- रसिये' त्यादि। ___ मूलम्-रसिय-भणिय-कुविय-उक्कूइय-निरयपालतजियंगेण्ह कम पहर छिंद भिंद उपाडेहुक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि यभंजहण विहण विच्छभोच्छब्भ आकड्ड विकड्ड किं ण जंपसि? सराहि पावकम्माइं कियाइं दुकयाइं एवं वयणमहप्पगब्भो संपडि सुयसहसंकुलो उत्तासओ सया निरयगोयराण महाणगरडज्झमाणसरिसो निग्घोसो सुव्वए अणिट्ठो तहियं नेरइयाणं जाइज्जंताणं जायणाहिं ॥ सू०३१ ॥
टीका-'रसिय-भणिय - कूइय - उक्कूइयनिरयपालतज्जियं ' रसितभणित-कुपितोत्कूजित-नरकपाल-तर्जितं-तत्र-'रसिय' रसिताः शूकरवद् घोरशब्दकारकाः, 'भणिय' 'भणिताः उच्चैः शब्दकारकाः, 'कूइय' कूजिताः अव्यक्तबनिकारकाः, 'उक्कूइय' उत्कूजिताः भयजनकाव्यक्तशब्दकारकाः ये 'निरय(णीसिट्ठो) प्रबल दुःखजनित महा शब्द वहां 'सुना जाता है ' (यह आगे से सम्बन्ध है)॥ सू. ३०॥
उस समय परमाधार्मिक परस्पर में किस प्रकार की बातचीत करते है ? यह सूत्रकार कहते हैं- रसिय-भणिय' इत्यादि ।
टीकार्थ-नरकों में नारकियों को हरएक प्रकारसे व्यथा पहुँचानेवाले थे परमाधार्मिक नारकियों को फिर अधिक कष्ट पहुँचाने के अभिप्रायसे (रसिय-भणिय-कूइय-उकूइय-निरयपालतजियं) (रसिय) सूअरके जैसे भयंकर घोर शब्दों को (भणिय ) उच्चस्वर से करते हैं ! उस में वे (कूइय ) अव्यक्त ध्वनि करते हैं ( उकुइय ) इस से नारकियों को और पामा मावे छे. मने तेना Avथा व्यास मेवो ‘णीसिट्ठो” प्र मજનિત ચિત્કાર ત્યાં “સંભળાય છે” (આ પ્રમાણે આગળને શબ્દો સાથે समय छे.) ॥सू. ३०॥
તે સમયે પરમધાર્મિક પરસ્પર કેવી વાત કરે છે તે સૂત્રકાર બતાવે छ- 'रसिय-भजिय" त्यादि.
ટીકાર્થ-નરકમાં નારકીઓને દરેક રીતે વ્યથા પહોંચાડનાર તે પરમધામિકે, नाडीमान ३७ ५५ पधारे ४ष्ट २५वाने भाट "रसिय-भणिय-कूइय, उक्कूइय -निरयपालतज्जियं" " रसिय" सूवरना भय ४२ धा२ ध्वनि " भणिय" G2 स्परे ४२ छ. तसा “ कूइय" भव्यत पनि रे छ. "उक य" ते
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર