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सुदर्शिनीटीका अ. १ सू. २५ नरकोत्पत्यनु दुःखानुभवनिरूपणम् ९९ 'उवगया' उपगताः प्राप्ताः-सन्तः 'पंचहि' पञ्चभिः 'इंदिएहिं ' इन्द्रियैःश्रोत्रादिभिः 'असुहाए' अशुभया अशातरूपया, 'वेयणाए' वेदनया-अशातवेदनीयकर्मोदयजनितया 'वेयणं ' वेदन-कुम्भीपचनानि दुःखं ' वेदेति' वेदयन्ति अनुभवन्ति । कीदृशया वेदनया ? इत्याह-'उज्जलबलविउलकक्खडखर फरुसपगाढपयंडघोरबीहणगदारुणाए । उज्ज्लबलविपुलकर्कशखरपरुषप्रचण्डघोर भीषणदारुणया=उज्ज्ला-तीव्रानुभावात्मकर्षत्वात् , बलाबलवती अनिवार्यत्वात् , विपुला=विशाला परिमाणरहितत्वात् , कर्कशा = कठोरा प्रत्यङ्गदुःखजनकलात् , खरा तीक्ष्णा-अन्तःकरणभेदकत्वात् , परुषा-निष्ठुरा-सुखलेशरहितत्वात् प्रगाढा -प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् , प्रचण्डा भयानका-आत्मनः-प्रतिपदेशव्यापित्वात् हो जाने के अनन्तर ( पज्जत्तिमुवगया ) आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन, इन पर्याप्तियों को प्राप्त हुए वे नारकी जीव (इंदिएहि पंचहि ) श्रोत्रादिक पांच इन्द्रियों द्वारा (असुहाए वेयणाए) असाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित अशुभ अशातरूपवेदना से ( वेयणं ) कुंभी पचनादि दुःखों का (वेदेति ) अनुभव करते हैं। यह अशातरूपवेदना उन नारकी जीवों की ( उजलबल विउल-कक्खड खरफरसपगाढपयंडघोरबीहणगदारुणाए ) उज्ज्वल-तीव्रानुभावशाली होती है, बल-अनिवार्य होने से बलिष्ठ होती है, विपुल परिमाण रहित होने से विशाल होती है, ( कक्खड ) प्रत्येक अंग दुःख जनक होने से कर्कश-कठोर होती है । खर अंतरंग की भेदक होने से तीक्ष्ण होती है। (फरस) सुख के लेश से रहित होने के कारण निष्ठुर होती है। (पगाढ) प्रतिक्षण असमाधि की उत्पादक होने से प्रगाढ है (पयंड) आत्मा के श्यना 25 गया ५७“ पज्जत्तिमुवगया " मा२, शरीर, धन्द्रिय, प्राणापान, लाषा भने मन मे पालिभोने पास ४ीने ना२४ ७१ " इंदिएहिं पंचहिं" श्रोत्राहि पाय धन्द्रियो द्वारा “ असुहाए वेयणाए " मसात वहनीय भना
यथी ४नित मशुल अशाता३५ वेहनाथी " वेयणं " सुलभा २घाव। माह हुमान " वेदेति " मनुन ४२ छे. ते ना२४ी वानी ते माशा३५ वहन ' उज्जलबलविउव-कक्खड-खर-फरूसपगाढ पयंडघोरबीहणगदारूणाए " Sora/qa-तीन मनुलवाणी डाय छ. बल-मनिवार्य हवाथी प्रम डाय छ, विपुल-परिभाणु २डित हावाथी विजय . “कक्खड” प्रत्ये: मम ५ न वाथी हीर होय छ, खर-हत्य लेह डावाथी तीक्षण होय छ, फरुस-सड०४ ५५१ सुपथी २डित पाने २२ निहु२ डाय छ, पगाढ- ४२४ पणे मसमाधिनी ५६४ पाथी प्रा डाय छ, पयंड
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર