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प्रश्नव्याकरणसूत्रे भवपत्ययेन च, = भवप्रत्ययः = भवन्ति कर्मवशाः जीवाः अस्मिन्निति भवः = नरकादिजन्म, भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तत् भवप्रत्ययं तेन-नरकजन्मकारणेन ‘सरीरं शरीरं नरकभवसम्बन्धिदेहं, 'निव्वत्तेति' निवर्तयन्ति-रचयन्ति । कीदृशं शरीरम् ? इत्याह-' हुंडं ' अस्फुटावयवं, बीभच्छदरिसणिज्जं' बीभत्स दर्शनीयं-विकृतस्वरूपं 'वीहणगं' भापकं भयजनकम् , 'अट्ठिण्हारुणहरोमवज्जियं' अस्थिस्नायुनखरोमवर्जितं स्पष्टं, असुभगम्-असुन्दरम् , दुक्खविसयं ' दुःखवि: षयं-क्लेशबहुलं शरीरं निवर्तयन्तीति सम्बन्धः । ' तो य' ततश्च-शरीरनिर्वतनानन्तरं 'पज्जत्ति ' पर्याप्ति = आहारशरीरेन्द्रिय-प्राणापानभाषामनःपर्याप्ति
ब्धि से और भवप्रत्यय से-नरक जन्म के कारण से वे ( सरीरं )शरीर को-नरकभव संबंधी शरीर को (निवत्तंति) बना लेते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि नरकों में जो जीव नारकी जीव की पर्याय से उत्पन्न होता है उसका अन्तर्मुहूर्त में ही नारकी का शरीर बन जाता है, क्यों कि इस शरीर के बनने का कारण वहां पर जन्म लेना है । इस शरीर के अवयव अस्फुट रहते हैं इसलिये इसे (हुंड ) हुंड कहा है और (बीभ. च्छदरिसणिज) यह शरीर-विकृत स्वरूपवाला होता है इसलिये बीभत्स दर्शनीय कहा है । (वीहणगं) यह शरीर भयजनक होता है
और (अहिण्हारुणहरोमवज्जियं) अस्थि-हड्डियों से, स्नायु-नसों से तथा नख और रोम से रहित ( असुभगं) असुन्दर और ( दुक्खविसयं ) क्लेश बहुल होता है । (तओ य ) इस प्रकार शरीर की रचना Auथी भने लक्प्रत्ययथी--२४मां नम थवाने १२६ तेरा “ सरीरं " शरी२२-२४४१ समधी शरी२ने “ निवत्तति " नापी से छे. ४ानु तात्पर्य એ છે કે નરકમાં જે જીવ નારકી જીવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેમનું અન્તર્મુહૂર્તમાં જ નારકીનું શરીર બની જાય છે, કારણ કે ત્યાં જન્મ લે એજ તે શરીર બનવાનું કારણ છે તે શરીરનાં અવયે અકુટ હોય છે તેથી तेने " हुंड" हु ४६ छे भने “ बीभच्छदरिसणिज्ज" ते शरी२ विकृत २१३५ वाणु डाय छे तेथी तेने भामरस ६शनीय उस छ. “ बीहणगं" ते शरीर मयन य छ, भने “ अट्ठिण्हारुणहरोमवज्जिय" अस्थि- माथी स्नायु-नसाथी तथा नम भने २ वाटीथी २डित, “ असुभगं” असु४२ भने " दुक्सविसयं" से युत राय छ, “ तओ य" ॥ ५४॥२नी शरीरनी
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર