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९] कर उन्हें बुद्धिचातुर्य व कलाओं से होन बताकर स्त्रियों का अपमान करना बुद्धिमानों का काम नहीं है । हमारे भारत वर्ष के नारीसमाज में धनोपार्जन व धर्मसम्बन्धी कार्यों में सदा से पूर्ण निपुण व स्वतंत्र जीवन बीतानेवाली ऐसी अनेक नारियों का अनोखा वृत्तान्त हमें प्राप्त होता है, । अस्तु । भद्रा सार्थवाही गणिम, धरिम, मेय, परिछेध ( इन सबों का अर्थ टीका में देखें ) इन चारों का व्यापार करती थी । अड्ढा जाव अपरिभूया ' अर्थात् वह भद्रा सार्थवाही अत्यधिक धन धान्य सम्पन्न, शील सदाचार रूपी गुणों से प्रकाशित तथा अपना गौरव से युक्त थी । उस के पास विपुल भवन, पलंग, शय्या, सिंहासन गाडी-रथ, हाथी घोडा, गाय-बेल, चान्दीसोना, व झवेरात थे । वह उदार भी ऐसी थी कि अपने धनद्वारा अनेकों का पालन करती थी, उस की भोजनसामग्री में से गरीब भिखारियों को प्रतिदिन भर पेट भोजन मिलता था, साधर्मियों का गुप्त व जाहिर में सहायता देती थी। इसी से उस की उत्कृष्ट श्रीमन्ताइ और धर्मपरायणता प्रत्यक्ष जानी जाती है ।
उस भद्रा सार्थवाही के उपलक्षण से युक्त सर्वाङ्गसुन्दर धन्य नामक पुत्र जन्मा, उसका लालन पालन व अध्ययन का वर्णन भगवती सूत्र में वर्णित महाबल कुमार के समान बताया गया है, उन सर्व गुणों से शोभित धन्यकुमार का विवाह युवावस्था के प्रारंभ में अपने जैसे धनपति ३२ श्रीमन्त सेठों की सुकुमारिकाओं से एक ही साथ, एक ही दिन में हुवा था ।
युवावस्था के प्रारंभ में विवाह विधान से हम समझ सकते हैं कि बाल्यावस्था व वृद्धावस्था में किये जानेवाले विवाह धर्मदृष्टि से भी अयोग्य हैं । इसी प्रकार उस समय विवाह उन्हीं कन्याओं के साथ होता था कि जो रूप लावण्य की समानताबाली हो और धर्म, गुण तथा जाति में समान हो, इस से विपरीत विवाह को अनमेल विवाह समझा जाता था ।
उन्हें बत्तीस करोड सोनैया श्वसुर पक्ष से दहेज में मिले थे, उन के पास अपना निजी धन भी इतना था कि जिस की गणना
શ્રી અનુત્તરોપપાતિક સૂત્ર