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१३ मृत्युमुखमें धकेल दिया । बादमें यक्षाधीन उस अर्जुनमालीने पांच मास और तेरह दिन तक नित्य छ पुरुष एक स्त्री की हत्या करते हुए ११४१ स्त्री पुरुषोंका निकन्दन किया । इन्हीं दिनों एक समय श्री महावीरप्रभु राजगृहके बाहर गुणशिलक बागमें पधारे, ये समाचार जब जेष्ठिपुत्र श्रमणोपासक सुदर्शन श्राववको मालूम हुआ तो वे अपने मातापिताकी आज्ञा लेकर बाहर उपसर्ग होते हुए भी निडर हो कर वन्दनको निकले। जब यक्षाधीन अर्जुनमाली उन्हें आते देखा तो वह उनके समक्ष दौड आया और उधर श्रावक उसे आते देख कर चारों आहारका त्याग करके ध्यान में बैठ गये । ध्यानधारी श्रावक पर जब यक्षका जोर नहीं चला तो वह अर्जुनमाली को त्याग कर चला गया । यक्षके चले जाने पर अर्जुनमाली भूर्छित हो गिर गया, उस समय श्रावक सुदर्शन अपनेको निद्रपद्रवित देख कर सागारिक संथारा पालकर उठे और अर्जुनमाली भी अन्तुर्मुहूर्त मूर्छा रहित होकर सचेष्ट हुआ फिर सुदर्शन सेठ अर्जुनमालीको अपने साथ लेकर भगवानके पास गये, वहां भगवानके उपदेशसे अर्जुनमाली दीक्षित हो गए। और उसी समय से बेले २ पारणा करनेकी प्रतिज्ञा लेकर उसी राजगृहमें पारणेके दिन भिक्षाके लिये जब जा रहे थे, तब राजगृहके लोग उन्हें अपने इष्टजनों का घातक समझकर पत्थर लकडी आदिसे मारते थे और अवहेलना करते थे परन्तु वे अपूर्व सहनशील महात्यागी पुरुष मध्यस्थ भाव से उन उपसर्गों को सह लेते थे भिक्षा में जो भी मिलता उसी पर निर्वाह करते थे । जितने भयंकर कर्म बांधे थे वे सब क्रमसे उत्कृष्ट संयम तपद्वारा क्षय करके छ महीनेमें मोक्ष जा बिराजे | इस अध्ययन से (१) सरागी देवको छोडकर वीतरागकी आराधनाही मोक्ष प्राप्तिका कारण है ऐसा समझना चाहिये ।
(२) कितना भी भयंकर उपसर्ग क्यों न आवे परन्तु धैर्य धारण कर धर्मकार्यमें उन्नति प्राप्त करनेसे आपत्तियां नष्ट होती हैं । (३) दुष्टके प्रति सज्जनता दिखाकर उसे उचित मार्गारूढ करनेमें हमें अपनी सज्जनता माननी चाहिये ।
શ્રી અન્તકૃત દશાંગ સૂત્ર