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छठे अध्ययनमें-वासुदेव राजा व धारिणी रानी के पुत्र सारणकुमारका वर्णन है । उसका विवाह पञ्चास कन्याओं के साथ हुवा । उसने युवाक्य में श्री अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर दीक्षा ली। चौदह वर्षकी संयमपर्याय में चौदहपूर्वका अध्ययन किया। बीस वर्षका चारित्रपालन कर अन्तमें एक मासके संथारे के साथ केवलज्ञान पाकर मोक्षको प्राप्त हुए।
सातवे अध्ययन में-क्षमाशील गजसुकुमाल मुनिका वर्णन है । श्री अरिष्टनेमि भगवान के अंतेवासी छ अनगार जो एकसा रूप लावण्यवाले थे, वे जबसे दीक्षित हुए तबसे बेले २ की तपश्चर्या का पारणा करने की प्रतिज्ञा ले के भगवान के साथ विचरने लगे। एक समय ये छओं मुनि प्रभुकी आज्ञा लेकर पारणेके लिये द्वारका में दो दो मुनिका तीन संघाडा बनाके भीक्षाचरी के लिये निकले। उनमें से दो मुनि देवकी महारानी के महलमें गोचरी के लिये प्रथम पधारे, वहां देवकी महारानी दोनों मुनियोंको सिंहकेसरी मोदक जो श्री कृष्ण के कलेवेके लिये बनाये हुए थे, वह बहराए । इसी प्रकार क्रमसे दूसरे समय अन्य दोनों मुनियोंको व तीसरे समय अपर दोनों मुनियोंको पूर्णभावसे मोदक बहराए और अन्त में पीछेसे आए हुए दोनों मुनियोंको देवकी महारानीने सविनय पूछा-'हे भदन्त ! इस समृद्धशाली द्वारकानगरीमें इतने घर होने पर भी क्या कोई भिक्षा देनेका भाव रखनेवाले नहीं है जिससे आपको एकही कुलमें अनेकवार भिक्षाके लिये प्रवेश करना पडा, इस प्रश्नके पीछे महारानीके हृदयमें यह अंतरवेदना थी कि क्या मेरी प्रजामें मुनियोंके प्रति प्रेमभाव व श्रद्धा नहीं रही, जिससे द्वारकामें मुनियोंके एकही कुलमें वारवार प्रवेश करना पड़ता है।
यह सुनकर पीछे से आए हुए मुनियोंने उसी समय इस प्रकार उत्तर दिया कि-महारानी ! इस महानगरीमें मुनियों को आहार नहीं मिलता, ऐसी बात नहीं है, और हमही तुम्हारे यहां तीनवार आए हैं, यह भी बात नहीं हैं। परन्तु हे देवानुप्रिये! हम छ अनगार सहोदर भाई हैं, हम छओंका देखाव एकसा होने से देखनेवालो को हम जुदे २
શ્રી અન્નકૃત દશાંગ સૂત્ર