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________________ १३४ ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे संग्रहः । विपुला-विस्तीर्णा आत्मप्रतिपदेशव्यापिनी, प्रागाढा प्रवर्धमाना तीव्रतरा, अतएव-दुरध्यासा=दुःसहा । वेदनायाः परिणाम प्रदर्शयति-' कंडुयदाह ' इत्यादि । ' कंडुयदाह पित्तज्जरपरिगयसरीरे, कण्डूकदाहपित्तज्वरपरिगतशरीर:= कण्डूकेन-कण्डूत्या, दाहेन हृदयकरचरणनयनज्वलनेन पित्तज्वरेण च परिगतं व्याप्तं शरीरं यस्य स तथा, चापि विहरती आस्ते । ततः खलु स शैलकस्तेन रोगातङ्कन रोगेण सामान्येन व्याधिना, आतङ्केन प्रबलतरेण व्याधिना, च शुष्को जातवाप्यासीत् । ततः खलु स शैलकः 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् में जो वेदना उत्पन्न हुई वह ( उज्जला जाव दुरहिया ) बहुत अधिक दुःखातिशय से वर्धित थी अतः प्रलय कालीन अग्नि की तरह शरीर को जला रही थी। यहां यावत् शब्द से " विउला पगाढा" इन पदो का संग्रह हुआ है। आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त होने से वह वेदना विपुल थी तथा तीव्रतर थी बहुत अधिक दिन प्रतिदिन बढने से वह प्रगाढ थी। इसलिये दुरध्यासथी बड़ी तकलीफ के साथ वह सहन करने योग्य थी । इस वेदनाजन्य शरीर में क्या २ परिणाम हुआ इस बात को सूत्रकार (कंडुय दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे ) इन पदों द्वारा प्रकट करते हैं वे कहते हैं कि उन राजऋषि शैलक अनगार का शरीर कंडुयन-खुजली- के दाहसे और पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। हृदय में, हाथों में, चरणों में और नेत्रों में उनके जलन होने लग गई। पित्तज्वर से पित्त में अधिकाधिक गर्मी आ गई- इस से लिया हुआ आहार उन्हें नहीं पचता और वमन द्वारा वह बाहिर निकल जाता २४ तमना शरीरमा ( उज्जला जाव दुरहिया ) वन भूम था मांडी હતી તેથી પ્રલયના અગ્નિની જેમ તેમના શરીરમાં બળતરા થતી હતી. અહીં 'यावत' श६ थी ( विउला पगाढा) । पहानी सड थयो छ मात्मा ના બધા પ્રદેશોમાં વેદના વ્યાપ્ત થઈ હતી તેથી તે “તીવ્રતર ” હતી. દિવસે દિવસે વેદના વધતી જ જતી હતી તેથી તે “પ્રગાઢ હતી એટલા માટે જ વેદના દુરધ્યાસ એટલે કે બહુ કષ્ટથી સા હતી. વેદનાને લીધે રાજ ઋષિના शरीरनी सतवी ते सूत्र १२ मडी २५ष्ट ४२ता ४ छ (कंडुय दाहपितज्जरपरिगयसरीरे) ते राषि मनगारनुं शरी२ यन-१२જવાની પીડાથી અને પિત્તના જવરથી વ્યાપ્ત થઈ ગયું. તેમની છાતીમાં હાથમાં, પગમાં અને આંખોમાં બળતરા થવા માંડી પિત્તજવર થી પિત્તમાં ગરમીનું પ્રમાણ વધી જવાથી કરેલા આહારનું પાચન થતું નહિ અને તે ઊલટી થઈને બહાર નીકળી જતા હતા. ખાવાપીવા તરફ તેમને સાવ અણુ શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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