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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् भंते !' हे भदन्त ! ते तव यात्रा वर्तते ? ' जवणिज्नं ते ' यापनीयं ते तव वर्तते ?, ' अव्यावाहं पि ते ' अव्याबाधमापि ते वर्तते ?, 'फासुयविहारं ते ' पासुक विहारस्ते तव वर्तते । ततस्तदनन्तरं स स्थापत्यापुत्रः शुकेन परिव्राजकेनैव मुक्तः सन् शुकं परिव्राजकमेवमवादीत्-हे शुक ! ' जत्ता वि मे' यात्राऽपि मे ममाऽस्ति, ' जवणि ज्जपि मे ' यापनीयमपि मे ममाऽस्ति, ' अब्बाबाईपि मे' अव्याबाधमपि मे मम वर्तते, 'फासुयविहारं पि मे' मासुक बिहारोऽपि मे ममाऽस्ति । ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः स्थापत्यापुत्रमेवमवादीत् ' किं भंते ! जत्ता' का भदन्त यात्रा हे भदन्त ! का=किं स्वरूपा तव यात्रा ?। स्थापत्यापुत्र अनगार था वहां गया। (उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं बयासी) वहां जाकरउसने स्थापत्यापुत्र से ऐसा कहा-(जत्ताते भंते! जवणिज्जं ते अव्वाबाहं पि ते फासुयविहारं ) तो हे भदंत ! आपकी यात्रा है क्या ? आपके यापनीय है क्या? आपके अव्यायाध है क्या? आपके प्रास्सुक विहार है क्या ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वयासी) इस प्रकार शुक परिव्राजक से पूछे गये उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसशुक परिव्राजक से ऐसा कहा-(सुया ! जत्ता वि मे, जवणिउजंपि में अव्वाबाहपि में फायविहारंपि में) हे शुक हमारा यात्रा भी है, यापनीय भी है हमारा अव्याबाध भी है हमारे प्रास्लुक विहार भी है। (तएणं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासी) जब स्थापत्यापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-तब उसने स्थापत्यपुत्र अनगार ( उवागछित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी ) त्यां न तेथे स्थापत्यापुत्र ने -( जत्ता ते भंते ! जवणिज्जते अव्वाबाहं पि ते फासुयविहार) महन्त ! શું તમારી યાત્રા છે ? યાપનીય છે? આવ્યાબાધ છે ? તમારે પ્રાસુક विहार छ ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुरणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणेसुयं परिवायगं एवं वयासी) शु४ परिवानी मा पात सालजीन स्थापत्याधुत्र मनारे शु४ परिवाने ह्यु- सुया ! जत्ता वि मे जवणिज्जंपि में अव्वा वाईपि में फासुयविहारपि में ) 3 शुभ ! आभारी यात्रा पy छ, यापनीय ५ छ, मायामा५ ५५५ छ. मन ममारे प्रासु विडा२ ५४ छे. (तएण से सुए थावच्चापुत एवं वयासी) न्यारे स्थापत्या पुत्र मनगारे शु परिनाने म प्रमाणे ४ह्यु, त्यारे स्थापत्या पुत्र मनपारे भने धु-(कि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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