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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू. २ सुधर्म स्वामिनाचम्पानगर्यासमवसरणम् ३६ एतादृश आर्यनम्बूनामाऽनगारः 'उहाए' उत्थया उत्थानम् उत्था, तया ऊर्वीभवनेन ऊर्चीभूयेत्यर्थः, 'उठेइ' उत्तिष्ठति उत्थितो भवति, उत्थाय यत्रवाऽऽर्य सुधर्मास्थविरो विराजते तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आर्यसुधर्मणः स्थविरस्य 'मूत्रे षष्ठयर्थे द्वितीया प्राकृतशैलीवशात्, 'तिक्खुत्तो' त्रिः कृत्वा त्रिवारम् आदक्षिणप्रदक्षिणम्-अञ्जलिपुटं स्वदक्षिणकर्णादारभ्य दक्षिणावर्तगोलाकारेण भ्रामयन् पुनर्दक्षिणकर्ण यावदानीय तस्य ललाटप्रदेशे स्थापनं करोति, कृत्वा 'वंदई बन्दते= उठा कि छट्टे अंग में वर्णित समस्त पदार्थों को श्रीसुधर्मास्वामी महाराज के मुखारविन्द से सुनकर मैं उनका ऐसा अवधारण करूँगा कि जिससे वे पदार्थ कालान्तर में भी नही भुलाये जा सकें। (उठाए उट्टेइ) इस तरह श्री सुधर्मास्वामी से कुछ दूर पर बैठे हुए बे जम्बूस्वामी वहाँ से जब उठे तो झककर के ही उठे। "उट्ठाए" इस पद से मूत्रकार उनमें अतिशय विनय संपन्नता प्रकट करते हैं । (उद्वित्ताजेणामेव अज्जसुहम्मे तेणामेव उवागच्छइ) उठकर वे जहाँ श्री आर्य सुधर्मास्वामी विराजमान थे वहां आये । (उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मं थेरे तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं करेइ) आकर उन्होने आर्य सुधर्मा स्थविर को तीन तार अञ्जलिपुट-बनाकर वंदन किया। "आदक्षिणप्रदक्षिण" का तात्पर्य यह हैं कि दोनों हाथों को अंजलि रूप में करके अपने दक्षिण कर्ण से लेकर उस अंजलि को गोलाकार घुमाते हुए पुनः दक्षिणकणे तक ले जाना और उसे फिर मस्तक पर लगाना । (करित्ता वंदइ नमसइ) એમની એવી રીતે અવધારણા કરીશ કે તેથી તે પદાર્થનું કાળાન્તરમાં પણ વિસ્મરણ न श. (उठाए उढेइ) २t प्रभा श्री सुधारवाभाथी थोडे ६२ मेहसा ते ५ स्वामी त्यांची न्यारे ला थया त्यारे नभान ४ जना प्या. 'उठाए' 240 ५६ ५ सूत्रा२ तेमनामा अत्यन्त विनय संपन्नता मताचे छ. (उद्वित्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे तेणामेव उवागच्छइ) San 45 ने तेथे श्री सुधारवामी या वि२ भान ता त्या माव्या. (उवागच्छित्ता अज्ज सुहम्म थेरे तिकखु तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) तेमाणे भावाने आर्य सुधा स्थविरने त्रए १मत मलि पूर्व प्रणाम या. 'आदक्षिण प्रदक्षिणमनो अथ से थाय छ भन्ने थाने 40લિ આકારે બનાવીને પિતાના જમણા કાનથી લઈને તે અંજલિને ગળાકારે ફેરવતાં ફરીથી भए अन सुधा सामने ५ तेने भाथा ५२ (करित्ता वंदइ नमसइ) વંદના કરી તે પછી વાણીથી સ્તુતિ કરી ફરી પાંચે અંગ નમાવીને વંદન કરી. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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