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________________ ३१२ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समुद्ररवाकुलमिव राजगृहं कुर्वन्तः' इति। रायगिहस्स नयरस्स' राजगृहस्य नगरस्य 'मझ मज्झेणं' मध्यमध्येन 'एगदिसिं' एकस्यांदिशि, 'एगाभिमुहा' एकाभिमुखाः= एक भगवन्तं अभि-अभिगतं मुखं येषां ते तथा भगवदभिमुखा इत्यथः, निर्गच्छन्ति, 'इमं च णं' अस्मिन् समये च खलु मेघकुमारः 'उप्पिपासायबरगए' उपरिप्रासादवरगतः प्रासादवरोपरिभूमिकस्थ; 'फुटमाणेहि' स्फुटद्भिःवाद्यमानः 'मुयंगमस्थ एहि' मृदङ्गमस्तकैः यावद् मानुष्यकान् भोगान् भुञ्जानः रायमग्गं च' राजमार्ग च 'ओलोएमाणे२' अबलोकमानः२ एवं च खलु विहरति आस्ते। ततः खलु स मेघकुमारस्तान् बहुनुग्रान् एकस्यां दिशिशब्द करते हुए ये सब चल रहे थे। उनके उन शब्दों से राजगृह नगर एसा मालूम हो रहा था कि मानो वह समुद्र के ध्वनि से ही अाकुल व्याकुल सा हो रहा है। इस तरह होते हुए वे सब (रायगिहस्स नयरस्स मज्झंमज्झेणं एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छंति ) राजगृह नगरके ठीक बीचों बीच से होकर एक ही दिशा की ओर एकाभिमुख होकर चल दिये। (इमंच णं मेहेकुमारे उप्पि पासायवरगए फुटमाणे मुयंग मत्थएहिं जाप माणुस्सए कामभोगे मुंजमाणे रायमग्गं च ओलो) २ अंवं च णं विहरइ) इस समय मेघकुमार अपने महल के उपर बैठा हुआ था। उसका समय जैसा पहले बतलाया गया है कि बाजोंकी मधुर ध नियों के श्रवण से तथा उत्तम २ ३२ प्रकारके नाटकों के कि जिनमे अपने ही शौर्य आदि गुणों का प्रदर्शन रहता था अवलोकन से व्यतीत होता था। इस प्रकार मनुष्य भव संबन्धी कामभोगों को भोगता हुआ वह अपना समय आनंद के साथ व्यतीत कर रहा था। उस मेघરા તેઓ બધા જઈ રહ્યા હતા. તેમના ઘંઘાટથી રાજગૃહનગર જાણે કે સમુદ્રની भ शहित २युं तु. २॥ शते ते मया (रायगिहस्स नयरम्स मज्झ मज्झेणं एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छंति) २०४२]६ न२नी पथ्ये थईने मे४२४ ६u त२६ मेलिभु५ थाने ४४ २ह्या ता. (इमे मेहे कुमारे उपि पासायवरगए फहमाणेहि मुयंगमस्थए हिं जाव माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे रायम ग्गं च ओलोएमाणे? एवं च णं विहरइ) ते मते भेषभा२ पाताना भाडेसनी ઉપર બેઠે હતું. તેને વખત જેમ પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમ-વાજાએની મધુર ધ્વનિઓના શ્રવણથી, તેમજ ઉત્તમોત્તમ પ્રકારના નાટકના-કે જેમાં પિતાના જ શૌર્ય વગેરેનું પ્રદર્શન રહે છે–અવલોકન કરતા જ પસાર થતે હતે. આ પ્રમાણે મનુષ્યભવના કામો ભગવતે તે પિતાને વખત સુખેથી પસાર કરતા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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