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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. अ.१ सू. १४ अकालमेधदोहदनिरूपणम् १९३ दाभिः वात्सल्यपूर्णाभिः, 'बग्गूर्हि' वाग्भिः वाणीभिः 'आलबइ' आलपति, एक वारं न पृच्छति, 'संलबइ' सलपति-पुनःपुनर्न पृच्छति, नो अर्धासनेनोपनिमन्त्रयति, नो मस्त के आजितिनो मां मस्त के-चुम्बति च किमपि अपर तमनः संकल्पो ध्यायति आर्तध्यानं करोति तद् भवितव्यं खलु अत्र कारणेन,, 'तं' तत्तस्मात् श्रेयः खलु श्रेणिकं राजानम् एतमर्थ प्रष्टुम् । एवं संप्रेक्षतेविचारयति, संप्रेक्ष्य-विचार्य यत्रैव श्रेणिको राजा, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त मस्त के अंजलि कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, तथा मन भाविनी उदार वाणी से मुझ से आलाप करते हैं न संलाप करते हैं और न एमा ही कहते हैं कि आओ आधे आसन पर बैठ जाओ। (णो मत्थयंसि अग्धाइ य) और न मेरा मस्तक ही सूंघते हैं। किन्तु (किंपि ओहयमणसंकप्पे शिया यइ) मनोरथकी पूर्ति से निराश होकर वे किन भावमें किन विचारों में मग्न हो रहे हैं-क्यों चिन्तातुर बने हुए बैठे हैं-(तं भवियव्यं णं एत्य कारणेणं) अतः इस में कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये। अतः(तं सेयं खलु मे सेणि यं राया एयमदं पुच्छित्तए) तो मुझे अब यही श्रेयस्कर कि मैं श्रेणिक राजा से इस विषय को पूछ । (एवं संपेहेइ) अभयकुमार ने ऐसा विचार किया। (संपेहिता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छई) विचार करके फिर वे श्रेणिक राजा के बिलकुल नजदीक गये (उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कटु जएणं विज एणं वद्धावेइ) जाकर उन्होंने सर्व प्रथम श्रेणिक राजा को करबद्ध होकर नमस्कार किया और जय विजय शब्द से उनका अभिनंदन किया। તેઓ ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય તેમજ મનગમતી સરસ વાણી દ્વારા મારી સાથે વાતચીત કરતા નથી. સંતાપ કરતા નથી અને આવ મારી સાથે જ અડધા આસન ઉપર બેસ એમ પણ हता नथी. णो मत्थयंसि अग्धाइ य) भने भाई मस्त: ५ सूता नथी परंतु (किपि ओहयमणसंजकप्पे झियायइ) मा भने तेसो थितामन थने या वियाशमा भी २ छ. (तं भवियब्वं ) मानु ४४४ ॥२५ ते। ॥४४ नये. (तं सेयं खलु मे सेणियं राया एयमढें पुच्छिनए) तो वे भा३ श्रेय श्रेणियाने मा विषे पूछामir .. पेहेइ) समयभारे 20 शते बियार ज्यो. (संपेहिता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ) विया२ ४रीने ते श्रेणि४ २०nनी मे४४म पासे या. (उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियसिरसावत्तं मथए अंजलिं कटुजएणं विजएणं वद्धावेइ) पासे ४४ने सौ प्रथम तेमध्ये કરબદ્ધ થઈને શ્રેણિક રાજાને નમસ્કાર કર્યો. અને વિજ્ય શબ્દથી તેમને વધાવ્યા. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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