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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१५ अभव० संज्ञिपञ्चन्द्रियजीवनि० ६८३ साख्याः आहारककेवलिसमुद्घातवर्जाः 'उबट्टगा तहेव अणुता विमाणवज्जा' उद्वर्तना तथैव-उपपातवदेव अनुत्तरविमानवर्जिताः एते स्वभवाइ उद्धृत्य अनुत्तर विमानेषु नोत्पधन्ते तदरिक्तेषु सर्व स्थानेषुत्पद्यन्ते, इति भावः। 'समयाणा जाव णो इणढे समढे' सर्वे प्राणाः यावत् सर्वे सत्वाः अभवसिद्धिकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वाः किमिति प्रश्नस्य, नायमर्थः समर्थः, इत्युत्तरम् । 'सेमं जहा कण्हलेस्ससए' शेषम्-उपरि यत् कथितं तदतिरिक्त सर्व कृष्णलेश्यशतक्तव ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तं कृष्णलेश्यशतं ज्ञातव्यं तबाह-'जाव' इत्यादि, 'जाबअणंतखुतो' यावत् अनन्तकृत्वः एतत्पर्यन्तं सर्व ज्ञातव्यमिति । 'एवं सोलसानु रात यहां नहीं होते हैं । 'उन्धट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जा' उद्वर्तना अनुत्तरविमानों को छोडकर उपपात के जैसी ही है । तात्पर्य कहने का यह है कि ये जब अपने भव से उवृत्त होते हैं तो अनुत्तर विमानों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इनके सिवाय और सब स्थानों में ये उत्पन्न हो जाते हैं । 'सव्यप्पाणा जाव णो इणठे समढे' हे भदन्त ! समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व अभवसिद्धिक रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? तो इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा कहना चाहिये कि हे गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । 'सेस जहा कण्हलेस्ससए' इस प्रकार से जो ऊपर में कहा गया है उसके अतिरिक्त और सब कथन जैसा कृष्णलेश्वशत में कहा गया है वैसा ही है । 'जाव अणंतखुत्तो' और यह कथन' 'यावत् पूर्व में अनन्तवार उत्पन्न नहीं हुए हैं। यहां तकका यहां कहना नथी. 'उबटुगा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जा' Sad ना अनुत्तर विभागाने छ।डीन ઉપપાત પ્રમાણે જ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–તે જયારે પિતાના ભવથી ઉદ્વર્તન કરે છે, તે તે અનુત્તરવિમાનમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. અનુત્તરવિમાન शिवाय मा ६ स्थानमा तेथे उत्पन्न थाय छे. 'सव्वपाणा जाव णो इणट्रे समटे' 3 भगवन् सपा प्राणे। यावत् सघणा सत्व। शु मससिद्धि४५थी પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એવું કહ્યું છે કે હે गौतम ! म अर्थ १२।१२ नथी. 'सेस जहा कण्हलेस्ससए' मा शत ९५२ જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે સિવાય બાકીનું સઘળું કથન કૃષ્ણલેશ્યા शतमा २ प्रमाणे 34 साल छे, ते प्रमाणे सम.. 'जाब अणंतखुत्तो' मन मा ४थन यापत ५७i मनतवा२ ५त्न या . २॥ કથન સુધીનું કુગ્ગલેશ્યાના પ્રકરણનું કથન કહ્યું છે તે જ પ્રમાણે કથન કહેવું - શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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