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________________ ३६ भगवतीसूत्रे भी दर्शिता तथैव एकेन्द्रियपृथिव्यादित आरभ्य वैमानिकान्त सर्वदण्डकेषु लेश्पादित आरभ्य अनाकारोपयोगान्त सर्वपदानाश्रित्य सर्वत्र चतुर्भङ्गयादि विचारः कर्तव्य इति । विशेषमाह - 'जस्स जं अस्थि तं पूर्ण चैव कमेणं भाणियब्ब' यस्य जीवस्य यत् लेश्यादिकमस्ति विद्यते तस्य तत् लेश्यादिकम् एतेनैबोपरिदर्शितेनैव प्रकारेण चतुर्भङ्गयादिरूपेण भणितव्यं वक्तव्यमिति । कथमिवेत्याह- 'जहा पावेणं दंडओ' यथा पापेन दण्डकः चतुर्भङ्गीकः कृतः, एवम् 'एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु अट्ठदण्डगा माणियव्त्रा जीवादीया वैमाणिय पज्जवसाणा' एतेनोपरिदर्शितेन क्रमेण प्रकारेणाष्टास्त्रपि कर्मपकृतिषु अष्टौ दण्डका भणितव्या जीवादिका वैमानिकपर्यवसानाः ज्ञानावरणीयाचारभ्य अन्तरायपर्यन्तेषु नारक देव जीवादारभ्य वैमानिकपर्यन्तेषु दण्डके निर्मातव्य इति । एकेन्द्रिय पृथिवी आदिकों से लेकर वैमानिकान्त समस्त दण्डकों में लेश्याआदि से लेकर अनाकारोपयोगान्त तक अपने अपने योग्य सर्व पदों को लेकर सर्वत्र चतुभंगी का विचार करना चाहिये। 'जं जस्स अस्थि तं एएणं चैव कमेणं भाणियव्वं' परन्तु इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि जिस जीव के जो लेश्यादिक हैं वे उसी जीव के ऊपर में दिखाये गये प्रकार के अनुसार चतुर्भगी आदि रूप से कहना चाहिये 'जहा पावेण दंडभो' जैसा पाप के साथ चतुर्भागी कृत दण्डक कहा गया है वैसा ही दण्डक 'एएणं कमेणं अट्ठसु वि कम्मपगडीसु' इसी क्रम से आठ कर्म प्रकृतियों में भी 'अहदंडगा भाणियव्या' आठ दण्डक कहना चाहिये - 'जीवादीया बेमाणियपज्जवसाणा' अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक तक के पदों में ज्ञानावरणीय आदिकर्मों के सम्बन्ध में आठ दण्डक पूर्वोक्त चार भंगोंवाला बना बना कर कहना चाहिये, કાયિકાથી આરંભીને વૈમાનિકા સુધી સઘળા દડકામાં લેયા વિગેરે ને લઇને અનાકારાપયેાગ સુધીના પદોને લઈ ને બધે જ ચાર ભંગાત્મક વિચાર સમજવા. ' जस्थत एणं चेत्र कमेण भाणियन्त्र " परंतु मे भ्यास અવશ્ય રાખવા જોઇએ કે-જે જીવને જે લેફ્યા વિગેરે કહ્યા છે. તે જીવને તે લૈયા વિગેરે ઉપર બતાવેલા પ્રકાર પ્રમાણે ચાર ભંગ પણાથી કહેવા मे. 'जहा पावेण दंडओ' ने प्रभाले पाना संबंधमां अतुलाहुआ। ह्या छे, खेन प्रमाना इंडेड 'एएणं क्रमेण अट्ठसु वि कम्म पगडीसु' या अथी आहे उभ' प्रतियोमा पशु 'अट्ठदंडता भाणियव्वा' मा ह उवा हो. 'जीवादीया वैमाणियपज्जव स्रोणा' कधी आरलीने वैमानि સુધીના પદામાં જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કર્મોના સબંધમાં પૂર્વોક્ત ચાર ભંગા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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